समान नागरिक संहिता

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लोकेश भिवानी

प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने दिनांक 27 जून को मध्यप्रदेश में बूथ संवाद कार्यक्रम में एक प्रश्न के जवाब में समान नागरिक संहिता का जिक्र किया और इसे देश के लिए जरूरी बताया इससे पहले हाल ही में विधि आयोग द्वारा समान नागरिक संहिता के विषय पर देश के नागरिकों से सुझाव मांगे गए हैं। समान नागरिक संहिता का वादा सत्ताधारी पार्टी बीजेपी ने अपने संकल्प पत्र (चुनावी घोषणा पत्र) – 2014 में किया था। लेकिन पिछले 9 साल में भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने इस वादे को अब तक पूरा नहीं कर पाई है। इससे पता चलता है कि यह कितना पेचीदा विषय है। यूरोप के ज्यादातर देशों में समान नागरिक संहिता कानून लागू है, क्योंकि भारत की तुलना में वो छोटे देश है एवं एक जैसी संस्कृति के लोग ही एक देश में रहते हैं। लेकिन भारत की विषय में यह विचार बहुत व्यापक है, क्योंकि भारत में विभिन्न मान्यताओं को मानने वाले लोग रहते हैं और सबके लिए एक जैसी प्रक्रिया/कानून बनाना जटिल काम है।
एकरुपता किसी भी देश के लिए आदर्श और बेहतर विचार नहीं है लेकिन प्रत्येक देश, समाज और धर्म को समय-समय पर प्रगतिशील विचारों और कानूनों को अपनाना चाहिए जिससे देश/समाज दूसरे देश/समाज की तुलना में पिछड़े ना। चूंकि परिवर्तन संसार का नियम है, लेकिन ज्यादातर समाज इसे अपनाने से हिचकते हैं और इस तरह की कोशिशों को अपनी पहचान और संस्कृति पर हमला बताते हैं।
समान नागरिक संहिता से मतलब सभी धर्मों के लोगों के लिए विवाह, तलाक, संपत्ति, संरक्षण, गुजारा भत्ता और गोद लेने की प्रक्रिया को एक जैसा बनाना है। भारत में अब तक ऐसे विषयों में कानून अलग-अलग है। हिंदू, सिख, बौद्ध जैन धर्म के अनुयायियों के लिए हिंदू कोड अधिनियम के तहत एक जैसे कानून है। मुसलमानों के लिए ऐसे मामलों में शरीयत कानून चलता है जिसे मुस्लिम पर्सनल ला – 1937 के अधिनियम के तहत लागू किया जाता है। बाकी धर्मों और संप्रदायों के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानूनों से अभी तक काम चल रहा है, जिनमें समय-समय पर संशोधन किया गया है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों के बदौलत 1955 – 56 में हिंदू कोड अधिनियम, चार अधिनियमो के रूप में संसद में पारित हुआ, जिन्हें हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम, हिंदू अवयस्क एवं संरक्षक अधिनियम एवं हिंदू गोद और देखभाल अधिनियम कहते हैं। इन सभी कानूनों के जरिए हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के लिए विवाह, तलाक, संपत्ति में महिलाओं को हिस्सा, अल्प वयस्क बच्चों के संरक्षक के लिए नियम और गोद लेने की प्रक्रियाओं के लिए कानून बनाए गए। वर्ष 2005 में हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम में संशोधन किया गया एवं महिलाओं को पिता एवं पति की संपत्ति का पूर्ण हक दिया गया। इस तरह से भारत के हिंदू समाज ने लगभग सभी प्रगतिशील नियमों को अपना लिया।
हिंदू धर्म के अलावा ईसाई, पारसी और यहूदियों के लिए बने कानून भी लगभग हिंदुओं के लिए बने कानूनों की समान ही है और उन्हें लेकर कोई विवाद भी नहीं है। इसके अलावा किसी भी संप्रदाय को ना मानने वाले के लिए, या अंतर धार्मिक विवाह के लिए भारत में स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 है। गोद लेने जैसे विषयों पर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट – 2006 (संशोधित) है, जिससे हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोगों के अलावा भी बाकि धर्मों के लोग बच्चे गोद ले सकते हैं और इसमें संपत्ति के विषय में भी कोई दिक्कत नहीं आती है।
भारत में जब भी समान नागरिक संहिता की बात होती है तो सर्वाधिक विरोध मुस्लिम समाज की तरफ से देखने को मिलता है, क्योंकि मुस्लिम धर्म में अभी भी शरीयत के कानून से ही विवाह, संपत्ति, तलाक और गुजारा भत्ता जैसे मामलों में फैसले होते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937 के अधिनियम में भी सभी शरीयत के कानूनों को ही रखा गया है। शरीयत कानून में मुस्लिम पुरुषों को बहूविवाह, तीन तलाक, निकाह हलाला, संपत्ति में ज्यादा हिस्सा, गुजारा भत्ता तलाक से इद्दत की अवधि (3 माह) तक देने का प्रावधान है, जो महिलाओं के लिए अति भेदभाव पूर्ण है। इसी तरह शरीयत कानून गोद लेने को भी निषिद्ध घोषित करता है। शबाना हाशमी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम के तहत मुस्लिम लोगों द्वारा गोद लिए गए बच्चों को भी वैध वारिस घोषित कर दिया है, जिससे गोद लेने के मामले में शरीयत कानून अप्रासंगिक हो गया है। इसी तरह 2001 में डेनियल लतीफी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ता मामले में भी मुस्लिम महिलाओं को राहत दी है। 2017 में सायरा बानो मामले में तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया और 2019 में केंद्र सरकार ने इस विषय में मुस्लिम महिला विवाह संरक्षण अधिनियम पारित कर दिया जिससे तीन तलाक पूरी तरह अवैध हो गया। इस तरह तलाक और गुजारा भत्ता मामलों में मुसलमानों के लिए कानून भी लगभग दूसरे सभी धर्मों के लोगों के समान ही हो गए। लेकिन निकाह हलाला, बहुविवाह और संपत्ति जैसे विषयों में अभी भी शरीयत कानून ही चल रहा है जो कि भेदभाव पूर्ण है।
समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोग संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 का हवाला देते हैं और इसे अपनी धार्मिक मामलों की आजादी पर अतिक्रमण बताते हैं। इसी तरह समान नागरिक संहिता का समर्थन करने वाले लोग संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15(1), अनुच्छेद 15(3), अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 44 का जिक्र करते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक मामलों की स्वतंत्रता है एवं अनुच्छेद 26 में धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता दी गई है। लेकिन यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है और जहां धर्म भेदभाव करता है वहां यह स्वतंत्रता सीमित की जा सकती है। इसके अलावा किसी भी धर्म से जुड़े पंथनिरपेक्ष मामलों पर संविधान का अनुच्छेद 25 लागू नहीं होता है और सरकार और न्यायालय इसकी ऐसी व्याख्या कर सकते हैं कि समान नागरिक संहिता धर्म से जुड़ा हुआ पंथनिरपेक्ष मामला है।
समान नागरिक संहिता का समर्थन करने वाले लोग संविधान के जिन अनुच्छेदों का जिक्र करते हैं उनमें अनुच्छेद 14 सबसे पहले आता है जो देश के प्रत्येक नागरिक को कानून के सामने समानता और संरक्षण का अधिकार देता है। इसी तरह अनुच्छेद 15(1) में लिंग, जाति, नस्ल, धर्म और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव करने की मनाही है। अनुच्छेद 15(3) सरकार को महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाने की स्वतंत्रता देता है। संविधान का अनुच्छेद 21 देश के प्रत्येक नागरिक को गरिमा पूर्व जीवन जीने का हक देता है, जिससे तलाक और संपत्ति जैसे मामलों में महिलाओं की स्थिति मजबूत होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न मामलों में सरकार से पूछा है कि समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में अब तक क्या कदम उठाए गए हैं, और भारतीय संविधान के भाग 4, जिसमे राज्य के नीति निदेशक तत्व है, के अनुच्छेद 44 में भी लिखा गया है कि राज्य समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में प्रयास करेगा।
भारत वर्तमान में विकास की नई ऊंचाइयों को छू रहा है और पूरी दुनिया में अपनी लोकतांत्रिक और न्यायप्रिय व्यवस्था के चलते विशेष महत्व रखता है। ऐसे में अगर भारत में धर्म के आधार पर महिलाओं और कुछ विशेष वर्गों का उत्पीड़न होता है, तो यह राष्ट्र के लिए शर्म की बात है। पंथनिरपेक्ष और संविधान से चलने वाले देश के लिए जरूरी है कि धार्मिक मान्यताएं संविधान के अंदर हो और संविधान के अनुरूप चले ना कि संविधान उन मान्यताओं के हिसाब से चलें। भारत में एक समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती है, या विभिन्न धर्मों के अलग-अलग कानूनों को प्रगतिशील बनाकर भी इस मुकाम को हासिल किया जा सकता है। अनुसूचित जनजाति के कुछ क्षेत्रों को इस मामले में रियायत दी जा सकती है।

अंततः भारत सरकार को एक ऐसी समान नागरिक संहिता के उद्देश्य से आगे बढ़ना चाहिए, जो विभिन्न धर्मों और समुदायों की विविधताओं को बनाए रखते हुए भेदभाव को खत्म करें। जिससे विभिन्न वर्गों की महिलाओं और पीड़ित लोगों को न्यायपूर्ण और सम्मानपूर्ण जीवन मिल सके।

 

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