तंत्र की बेड़ियों में तड़फती आस्था की चौखट

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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

वर्तमान में देश के हालात सम्प्रदायगत होते जा रहे हैं। कथित अल्पसंख्यकों की वकालत करने वाले दल भी हिन्दुत्व का नारा बुलंद करने लगे हैं। देश की स्वाधीनता के बाद संविधान में दोगली नीतियां स्थापित करने वाले भी जनेऊ, चंदन और माला का लेकर मंदिरों में माथा टेकने का नाटक कर रहे हैं। ऐसी मानसिकता के पक्षधरों व्दारा एक ओर अपने सत्तासीन राज्य में धर्मान्तरण विरोधी कानून को समाप्त करके अपनी वास्तविक मंशा भी जाहिर हो रही हैं वहीं देवालायों की चौखटों को चूमकर अपनी बनावटी श्रध्दा भी दिखा रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश के पुरातन देवस्थान आज सरकारी बंदिशों में पक्षपात का केन्द्र बनकर दौलत वालों, पहुंच वालों तथा खद्दर वालों के लिए पलक पांवडे बिछाते हैं वहीं आम श्रध्दालुओं की भीड को धक्के देकर नजर भर के अपने आराध्य के दर्शन भी नहीं करने देते। कुछ अपवादों को छोड दिया जाये तो देश के सभी तीर्थ, धाम और शक्ति स्थलों पर सरकारी नुमाइंदों के कब्जे हैं जो विशेष दर्शन, विशिष्ट दर्शन, विस्त्रित पूजा के नाम पर भारी भरकम रकम वसूलते हैं या फिर पहुंच वालों के लिए पलक पांवडे बिछाकर अपनी तैनाती सुरक्षित करते हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अलावा धनपालिका के लोगों को भगवान के दरवार में भी सम्मानित कराने वाले सनातनी आस्था पर निरंतर चोट पहुंचा रहे हैं। प्रसिध्द देवालयों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जहां आम श्रध्दालु को अपने आराध्य के सम्मुख पहुंचने की प्रेरणा देते हैं वहीं चमत्कारों के तिलिस्म से उपजे नवीन स्थानों और उनके स्वयं-भू मठाधीशों की ओर समस्याग्रस्त लोगों का खिचाव भी तेजी से देखने को मिल रहा है। मन की बात बता देने वाले संतों को अतीत में ढूंढ पाना बेहद कठिन था परन्तु अब तो सोशल मीडिया पर एक क्लिक करते ही ढेर सारे मठाधीश सामने आ जाते हैं जो अपने स्वयं की प्रतिभा का अप्रत्यक्ष बखान करते हुए ईश्वरीय अनुकम्पा की आड ले रहे हैं। ऐसी नवीन स्थापनायें जहां तात्कालिक चमत्कारों की दम पर लोकप्रियता के नये कीर्तिमान स्थापित कर रहीं है वहीं समान आचरण वाले मठाधीशों के मध्य खिंची तलवारें भी कम रोचक नहीं होतीं। ऐसे मठाधीशों तक पहुंचने वाले केवल अपनी समस्या का जादूई समाधान चाहते हैं। कहीं नक्षत्रों का फेर बताया जाता है तो कहीं दूसरों के व्दारा टोन-टोटका कराने की बात सामने आती है। कहीं खराब समय होने की बात कही जाती है तो कहीं अपनों से धोखा मिलने की स्थिति को रेखांकित किया जाता है। आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसी नवीन स्थापनाओं पर पहुंचने वालों का खुले आम वीडियो रिकाडिंग करके उसे सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मस पर वायरल भी कर दिया जाता है और पीडितजन मजबूरी में स्वयं को सार्वजनिक रूप से अपमानित होने के बाद भी खामोश रहता है। उस पर मठाधीश का प्रभाव इस कदर हावी हो चुका होता है कि वह स्वयं की व्यक्तिगत स्थिति का खुलासा होने के बाद भी अनिष्ट होने की आशंका से होठों को सिलने पर मजबूर होता है। आगन्तुक के साथ घटी अप्रिय घटनाओं को बताकर वाह-वाही लूटने वालों को सामाजिक प्रतिबंधों के साथ-साथ संवैधानिक निजिता कानून का तो सम्मान करना चाहिए। दूसरों का दु:खद पक्षों को उजागर करके स्वयं को महिमा मण्डित करने वाले केवल और केवल स्वयं के प्रचार में लगे हैं। विश्व गुरु की उपाधि से विभूषित देश की धरती पर निरीह नागरिकों की मजबूरियों का जमकर मुखौल उडाया जा रहा है। ऐसे मठाधीश अपने मंच से किसी राजबली, जनबली, अधिकारबली, धनबली, बाहुबली, पदबली की कुण्डली नहीं खोलते। उनके काले कारनामे उजागर नहीं करते। उन्हें एकान्त में बंद कमरे में बैठकर की गई गलतियों की जानकारी और समस्याओं के उपचार की सलाह देते हैं। सोशल मीडिया पर केवल और केवल आम आवाम को ही निर्वस्त्र करने वाले दरवारों के ही वीडियो डाले जा रहे है। इन दरवारों में कभी पूजा के नाम पर, कभी जाप के नाम पर, कभी अनुष्ठान के नाम पर, कभी हवन के नाम पर, कभी यज्ञ के नाम पर, कभी कथा के नाम पर, कभी देवालय में स्थापित मूर्ति के पास से दर्शन कराने के नाम पर, कभी मठाधीश से मुलाकात के नाम पर खुलेआम उगाही चल रही है। समस्याओं से दो-दो हाथ करके हार चुका मजबूर इंसान अन्त में भगवान के दर पर पहुंचता है परन्तु वहां भी भगवान बनकर बैठे लोगों के खास सिपाहसालार बहुत ही निर्दयीता से आगन्तुकों का शोषण करते हैं। प्राचीन मंदिरों में स्थापित प्रतिमाओं पर सरकारी तंत्र का पहरा लगा है और नवीन स्थापनाओं पर मठाधीशों ने कब्जा कर लिया है। दौनों ही धाराओं में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुडे जिम्मेवार लोग निर्विध्न रूप से निरंतर डुबकी लगा रहे हैं। यहां आकर अतिविशिष्ट सम्मान पाने वाले व्यक्तिगत उपलब्धियों के आधार पर इन अध्यात्म के केन्द्रों में हो रही मनमानियों को नजरंदाज कर देते हैं। उदाहरण के रूप में देखा जाये तो केवल बुंदेलखण्ड में ही एक दर्जन से अधिक मठाधीश है जो निरंतर अध्यात्म की गंगा बहाने के नाम पर समस्याग्रस्त लोगों की भीड इकट्ठा कर रहे हैं। कहीं कथा के नाम पर परेशान लोग अपनी परेशानियों से मुक्ति हेतु पहुंचने का मजबूर होते हैं तो कहीं दरवार के नाम पर समाधान पाना चाहते हैं। ऐसे लोग सामाजिक व्यवस्था के तानेबाने की जटिलताओं में फंसकर उनसे मुक्त होने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। इसी मजबूरी का फायदा उठाने वाले उन्हें तिलिस्म के सहारे ठगने से बाज नहीं आ रहे। सामाजिक सौहार्य की घास को चिंगारी भेंट करने वालों की तीखी बयानबाजी अब अप्रत्यक्ष में टकराव ही रही है। वैमनुष्यता का बीजारोपण करने वालों को राजनेताओं से लेकर अफसरशाही तक का खुला संरक्षण मिला हुआ है जिसे देश के हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। जब तक तीर्थो की चौखटों पर समानता का व्यवहार नहीं होगा तब तक मठाधीशों की दोधारी तलवार के वार रोकना बेहद कठिन है। आखिरकार तंत्र की बेडियों में तडफती आस्था की चौखट को मुक्त कराना ही होगा। अन्यथा भविष्य में सनातन के धूल-धूसित होते स्वरूप को संवारा असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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