अब कार्यपालिका को मनाये बिना सिंहासन तक पहुंचना असम्भव
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
दुनिया में शक्ति से साम्राज्य स्थापित की करने की हमेशा से ही परम्परा रही है। दैत्यों के देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें गुलाम बनाने की मंशा के उदाहरण वैदिक ग्रन्थों में भरे पडे हैं। पुरातन इतिहास के साथ-साथ निकट अतीत की स्थितियां भी आतंक के सहारे हुक्मराने बनने की कहानियां सुनातीं हैं। लोकतंत्र की दुहाई पर समान हित वालों ने मिलकर कट्टरता का अनेक बार परचम फहराया है। पडोसी पाकिस्तान में तो विगत 75 वर्षों में से 35 वर्षों तक सेना ने अपने आतंक के दम पर लोकतंत्र का अपहरण किया हैं। तख्तापलट की पहली घटना सन् 1956 में घटी जिसके तहत सन् 1971 तक सैनिक साम्राज्य रहा। जनरल अयूब खान की कारगुजारियां सामने आईं। दूसरी घटना सन् 1977 में सामने आई जिसके तहत सन् 1988 तक बंदूक ने देश चलाया। तब जनरल जिआ उल हक के कारनामें दिखाई दिये। तीसरी बार सन् 1999 में तख्तापलट हुआ जिसके तहत सन् 2008 तक जनरल परवेज मुशर्रफ की नीतियां लागू रहीं। इसी तरह अफ्रीका के सूडान में अक्टूबर 2021 को सेना ने तख्तापलट कर दिया। जनरल आब्देल फतह बुरहान ने आपातकाल की घोषणा कर दी। सरकार को चलाने वाली संप्रभु परिषद को भंग कर दिया गया। यह घटना यूं ही नहीं घटित हुई बल्कि सन् 2019 में उमर अल बसीर के सत्ता से बाहर होने के बाद सेना की सत्ता में भागीदारी की बात उठाई गई थी। काफी जद्दोजेहद के बाद वहां राज्य करने वाली संप्रभु परिषद में सेना की संवैधानिक भागीदारी स्वीकार कर ली गई। परिणामस्वरूप भागीदार ने पूरी की पूरी सत्ता ही हथिया ली। ऐसे ही हाल पश्चिम अफ्रीकी देश माली, गिनी के बाद अब बुरकिना फासो तीसरा का भी हो गया है जहां की फौज ने दहशत फैलाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया है। म्यांमार के हालात तो और भी खराब होते चले गये। फरवरी 2021 में वहां की सेना ने सरकार पर निर्यात नियमों के उल्लंघन तथा गैर कानूनी ढंग से दूरसंचार यंत्र रखने, चुनावों में धांधली के आरोप लगाये और सत्ता का तख्तापलट कर दिया। अपदस्थ राष्ट्रपति विन मिन तथा प्रधानमंत्री अब्दुला हमदूक पर ज्यादतियां की गईं। थाईलैण्ड में तो मई 2014 में तख्तापलट की कार्यवाही करके सेना ने देश के संविधान तक को निलंबित कर दिया था। वहां पर सन् 1932 में राजशाही समाप्त करके लोकतंत्र को बहाल किया गया था, तब से लेकर अभी तक 12 बार सैन्य शक्ति ने आतंक का खुलेआम प्रदर्शन करके नागरिकों को गुलामों की तरह रहने के लिए बाध्य कर दिया था। श्रीलंका के हालात भी किसी से छुपे नहीं हैं। विश्व के कुछ तानाशाहों को यदि छोड दिया जाये तो ज्यादातर देशों में सेना की दखलंदाजी से ही सत्ता का तख्ता पलट हुआ है। इस सत्ता परिवर्तन के लिए शक्ति का आंतक के रूप में परिवर्तित होना ही मूल कारण रहा है। निरीह आवाम पर क्रूरता के चाबुकों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रहार होते रहे हैं। कभी सिसकियों पर पाबन्दियां लगाई गईं तो कभी आह पर भी पहरे बैठाये गये। कभी न्याय की दुहाई देने वालों को लहूलुहान किया गया तो कभी विरोधियों के मुंह में कपडे ढूंसे गये। ऐसा ही एक काल भारत में भी आया था जब किन्हीं खास कारणों से आपातकाल की घोषणा कर दी गई थी। जुबानों पर ताले लगा दिये गये थे। मानवाधिकारों पर तानाशाही का परचम फहराया गया था। धर्म के नाम पर क्रूरता के कहानियों का मंचन होने लगा था। जनसंख्या की विसमता को दूरगामी नीतियों के तहत समानता पर लाने हेतु अप्राकृतिक ढंग अपनाया गया था। देश के एक वर्ग पर परिवार नियोजन के नाम पर नसबंदी थोप दी गई। अखबारों से लेकर रेडियो तक पर सेंसरशिप लागू कर दी गई। तानाशाही सोच के साथ कदमताल न करने वालों को कारागारों में पहुंचा दिया गया। अनगिनत जुल्मों की अनकही दास्तानें नेपथ्य में समा गईं। यूं् तो तुष्टीकरण और सामाजिक वैमनुष्यता का विष बमन, आजादी के तुरन्त बाद ही दिखाई देने लगा था। स्वाधीनता संग्राम के रणबांकुरों को मौत की नींद में हमेशा के लिये सुला देने वाले गोरों ने अपने खास सिपाहसालारों को ही सत्ता हस्तांतरित की। लंदन में बैठाकर दूरगामी षडयंत्र के तहत अंग्रेजी में भारत का संविधान लिखवाया गया ताकि आम आवाम न तो उसे समझ सके और न ही बिना अंग्रेजी के न्याय ही पा सके। उसी परम्परा के व्यक्ति ने देश की कार्यपालिका की दम पर न केवल आपातकाल लगाया बल्कि क्रूरता के सारे मापदण्ड ही नस्तनाबूत कर दिये। लहूलुहान नागरिकों के घावों को नासूर बनाने वालों ने देश की जडों को मट्ठा पिलाना शुरू कर दिया था। कार्यपालिका को असीमित अधिकार दे दिये गये थे। मनमानियों का सैलाब आ गया था। संवेदनायें, सौहार्य और सहयोग की खेती सूखती चली गई। वैमनुष्यता, स्वार्थ और हरामखोरी की बाढ ने तूफान का रूप ले लिया। आम आवाम दांतो तले अंगुली दबाकर स्वयं को किस्तों में कत्ल होते देखता रहा। उस घटना के बाद से कार्यपालिका के हौसले बुलंद होते चले गये। आपातकाल के अनुभवों का परम्परागत हस्तांतरण होता चला गया। लोक सेवक के रूप में नियुक्ति पाने वालों ने लोक शासकों के रूप में व्यवहार करना शुरू कर दिया। वर्तमान समय में तो कार्यपालिका के स्थाई कर्मचारी तक स्वयं को देश का दामाद मानने लगे हैं जिनके लिए करदाताओं को जी तोड मेहनत करना अनिवार्य हो गया है। जनप्रतिनिधियों की अनुशंसा पर लोक शासक की मर्जी मायने रखने लगी है। हालात तो यहां तक पहुंच गये हैं जब दुनिया के तख्तापलट में सेना की दखलंदाजी हो रही है तब भारत में कार्यपालिका की मर्जी से गठित होने लगीं है सरकारें। वातावरण निर्माण में कार्यपालिका की सबसे अहम भूमिका हो गई है। जनकल्याणकारी योजनाओं को आम आवाम के मध्य पेचेंदगी भरी प्रक्रिया से प्रस्तुत करने में माहिर अधिकारी-कर्मचारी ही सत्ताधारी दल के पुनर्रागमन या पतनोन्मुखी होने के लिए माहौल तैयार करते हैं। यही कारण है कि देश में केन्द्र से लेकर राज्यों तक को मजबूरी में कार्यपालिका के स्थाई कर्मचारियों के लिए सुख-सुविधाओं का पिटारा खोलना पडता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अब देश में कार्यपालिका को मनाये बिना सिंहासन तक पहुंचना असम्भव हो गया है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।