पहाड़, विश्वास और हम
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आगरा पाेस्टिंग के दाैरान मैं गांव आने के लिए बिजली घर बस स्टेशन पहुंचा। हरिद्वार के लिए बस खड़ी थी लेकिन कंडक्टर ने बताया कि आधे घंटे बाद चलेगी। मैंने टिकट लेकर सीट बुक करदी तथा सामान उसमें रख दिया। समय बिताने के लिए समीप ही एक स्टॉल पर काेई मैगजीन तलाशने लगा। तभी मैंने देखा एक अधेड़ उम्र का सम्भ्रान्त व्यक्ति इधर-उधर चहल-कदमी कर रहा है। उसकी और मेरी दृष्टि सम हुई ताे वह झट से मेरे समीप आ गया। उसने कहा नमस्ते बेटे। मैंने अभिवादन में अपने दाेनाे हाथ मिला दिए। उसने पूछा आपकाे कहां जाना है? मैंने उत्तर दिया-हरिद्वार। उसने अगला प्रश्न पूछा, क्या पहाड़ से हाे? मुझे बड़ा अटपटा लगा। लेकिन मैंने उसे टालने के अंदाज में उत्तर दिया- हां। वह एक सांस में बताने लगा कि वह दिल्ली में कपड़े का बिजनेस मैन है और भरतपुर जा रहा है। पहाड़ के कई लाेगाें से उसकी बहुत अच्छी दाेस्ती है, वे उनके ग्राहक भी हैं। वे बहुत, सीधे इमानदार हाेते हैं आदि आदि। फिर उसने अपना पेट पकड़कर कहा, बेटा! क्या दाे मिनट के लिए आप मेरा बैग पकड़ सकते हाे, पेट कुछ गड़बड हाे रहा है और मुझे शाैच जाना है। वहां पर काेई केयर टेकर भी नहीं है। मैंने नहीं के लिए गर्दन हिला दी। उसने बैग की चेन खाेली और कहा- अरे घबराओ नहीं। इसमें कुछ नहीं है। ये देखाे मफलर, स्वेटर और कुछ कागज के पैकेटाें में बंद रसीद बुकें। बस इन्हीं का वजन है।
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उसने फिर व्यग्र स्वर में कहा कि वह दाे मिनट में आ जायेगा। मैंने कुछ हिचाकिचाहट में बैग पकड़ ही लिया। बैग सॉलिड भारी था। मुझे कुछ घबराहट हाे रही थी लेकिन वह जल्दी बाहर आ गया। उसने आते ही पूछा अभी ताे आपकी बस के लिए समय है? मैंने कहा हां। एक मिनट आया कहते हुए वह स-रर से गेट के बाहर निकल कर सड़क पार हाथ धाेने लगा फिर मिठाई की दुकान पर चला गया। मुझे इत्मिनान हुआ। वह लाैटा और सड़क के कार्नर से उसने मूंगफली खरीदी। मेरे पास आया, बैग लिया, धन्यवाद किया। उसने कुछ पेड़े मुझे दिए जाे मैंने लेने से मना कर दिया। लेकिन मूंगफली उसके साथ खाने लगा। बातचीत में उसने कहा- देखाे मैंने बैग खाेलखर आपकाे बताया था कि कागजाें में रसीदबुकें लिपटी हैं लेकिन वास्तव में ये नाेट हैं और पच्चास हजार के पैकेट हैं। मैंने उसे उत्तर दिया- मेरे लिए ये रसीद बुक जैसे ही हैं। उसने कहा, हां वह भली प्रकार जानता है और पहाड़ के आदमियाें पर वे अपने बिजनेस में भी बहुत विश्वास करते हैं। इसीलिए आप पर भी पूरा विश्वास था। बस हार्न बजाने लगी।
उन्हें अभिवादन कर मैं अपनी सीट पर बैठा ताे गर्व से मेरा आत्मविश्वाास और आत्ममुग्धता सातवें आसमन पर था। धीरे धीरे एक स्टेशन के बाद दूसरा स्टेशन छूटता चला गया और मेरी आत्ममुग्धता मंद पड़ने लगी कि यह विश्वास ताे एक चुनाैती भी है कि क्या इस विश्वास काे हम सदैव विश्वसनीय बनाकर रख सकेंगे। क्या पहाड़ का माथा हमेशा यूंहि गाैरवशाली रह सकेगा और वह हमारे हाेने पर सदैव गर्व करेगा
डॉ० हरिनारायण जाेशी अंजान