अघोरियों की होली और अघोर का अर्थ
अघोरी-
मशान होली शिव की होली है। होली से पहले बनारस के श्मशान में ये खेली जाती है। ये अघोरियों की होली है जो बनारस में हो रही है। शिव नटराज है और प्रथम योगी भी और प्रथम अघोरी भी । अघोर होने का अर्थ है किसी भी वस्तु से ईर्ष्या न होना, किसी से घृणा न होना चाहे वो जीवन का स्पंदन हो या मृत्यु की वेदना।
अघोरी होना विपरीत यात्रा है, जन्म की ओर की यात्रा। एक बच्चा जब जन्म लेता है तब वो अघोरी होता है। किसी भी वस्तु से घृणा नहीं करता, कुछ भी त्याज्य नही होता उसके लिए। एक बच्चा अपने शरीर मे मल लपेट कर खेल सकता है, उसे खा सकता है, अपने मूत्र में सो सकता है। वह अपनी मृत माँ के स्तन से दूध पीकर अपनी भूख मिटा सकता है।
वह अपने भोजन और मल को एक ही तरह से देखता है। जन्म की इसी अवस्था को प्राप्त करना ही अघोरी हो जाना है। जब आपके लिए लाश, कपाल या श्मशान की राख कुछ भी त्याज्य न हो। अघोर होने का अर्थ है अभ्यंकर, भय को नष्ट करने वाला। नवजात शिशु की उस अवस्था मे पहुँच जाना जहां भौतिक चीजों के बीच कोई भेद न हो, अवस्थाओं का भेद न हो, भोजन के बीच कोई भेद न हो।
शिव को देव दानव असुर राक्षस मानव सब पूजते है और उन्हें भी ये सब स्वीकार है बिना भेदभाव के। शिव को कुछ भी अर्पण कर दो, वो सब लेते है, एक नवजात शिशु की तरह। वह जीवित लोगों के साथ भी होली खेलते हैं और शमशान में मृतकों के साथ भी। उसके लिए जिंदा और मरे हुए शरीर में कोई अंतर नहीं है। शिव के लिए एक सजी-सँवरी देह और एक मृत सड़े हुए शरीर में कोई भेद नहीं है।
प्रेम, ईर्ष्या, पवित्र, अपवित्र जैसी मानवीय मान्यताओं और संकीर्ण मानसिकता में बंधे लोग शिव को कभी भी नहीं जान पाते, न उनके अलग अलग स्वरूपों का भेद, न उनके भांग प्रसाद का मर्म और न उनके लिंग पूजन का रहस्य। सभ्य मानवों को न शिव के प्रतीक हज़म होते है न अघोर स्वरूप। शिव के बारे में जो हज़म नहीं हुआ, उसे धर्म के नव ठेकेदारों ने अपनी सुविधानुसार हटा दिया।
नव ठेकेदार शिव को बदलना चाहते हैं क्योंकि शिव होने का मर्म ही नही जानते। सब को सहज रूप में स्वीकार करने वाले शिव को अगर इस समाज के नव ठेकेदार उनके सहज स्वरूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है तो यह समस्या आपकी है, शिव की नहीं। जाना अंत मे आपको शिव के पास ही है, चाहे साधना की अग्नि में जाएं या श्मशान की अग्नि