भीड़तंत्र को जातितंत्र की कट्टरता में बदलने के मंसूबे
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
गुलामी की बडियां तोडकर आजाद होने के बाद देश को सुव्यवस्थित करने की गरज से राजशाही के स्थान पर लोकशाही की स्थापना की गई। तात्कालिक परिस्थितियों में संविधान की रचना हुई। यह अलग बात है कि संविधान की रचना के दौरान किन लोगों को हाशिये पर रखने का षडयंत्र हुआ और कौन लोग, किस तरह प्रभावी हुए, परन्त आखिरकार देश ने स्वतंत्र गणराज्य के रूप में स्वयं के अस्तित्व को स्थापित कर ही लिया। लम्बे समय तक तंत्र के प्रभावी लोगों ने अपनी मर्जी के अनुसार गण पर नियम कानून थोपे। वोट की राजनीति चली। समय ने करवट बदली। सत्ता हस्तांतरित हुई। नये लोगों ने स्वयं को स्थायित्व प्रदान करने की गरज से कार्य करना शुरू कर दिया। आरक्षण, मुफ्तखोरी जैसे वादों पर वादे होते गये और गरती करदाताओं के खून पसीने पर अप्राकृतिक गाज। नये सत्ताधारियों के तंत्र ने गण पर नियमों की बौछार शुरू कर दी। युग बदल चुका था, सो साइबर क्रांति के साथ ही षडयंत्र करने के आयाम बदल गये। भीडतंत्र ने जिस तेजी से अपना प्रभाव दिखाया, वह पहले संचार के अभाव में कभी देखने को नहीं मिला था। इतिहास गवाह है कि शाहीनबाग से लेकर किसान आंदोलन तक की रूपरेखा वातानुकूलित कमरों में तैयार कर संचार माध्यमों से पूर्व निर्धारित लोगों तक दायित्व विभाजन के साथ बिन रोकटोक के पहुंचाई गई थी। परिणामस्वरूप पलक झपकते ही सडकों पर तांडव की स्क्रिप्ट अभिनीत हुआ। सत्ता ने जिस साइबर युग की दुहाई पर विकास की इबारत लिखने का दावा किया था, वही साइबर संसाधन उसके लिए अभिशाप बनने लगे। बात इन कथित जन आन्दोलनों तक ही सीमित नहीं रही, तो भी ठीक थी। उससे भी चार हाथ आगे बढकर भीडतंत्र को जातितंत्र की कट्टरता में बदलने के मंसूबे पूरे करने में अनेक राजनैतिक दलों ने जोर आजमाइश शुरू कर दी ताकि इन नये हथियार से और ज्यादा धातक कट्टरता, वैमनुष्यता और अहंकार के कारतूस दागे जा सकें और अपनों के खून से मां भारती के आंचल को ही रंगा जा सके। प्रयोग के तौर पर इसकी शुरूआत भीड के संवैधानिक स्वरूपों यानी संगठनों के गठन के साथ दसियों साल पहले ही की जा चुकी थी। सरकारी सेवाओं से लेकर संगठित मजदूरों तक ने डंडों पर झंडे लगाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन शुरू कर दिया। इन सब भीडतंत्रों को वोट बैंक मानकर राजनैतिक दलों ने खुलकर संरक्षण दिया। यही आगे चलकर दलगत राजनीति के हथियार बनते चले गये। कल्याणकारी कार्यक्रमों को गति देने के नाम पर बनाये गये संगठनों का उपयोग प्रतिव्दन्दियों को धराशाही करने के लिए किया जाने लगा। कुछ दिन पहले ही सरकारी चिकित्सालयों में तैनात चिकित्सकों की मनमानियों के विरोध में प्रदर्शन किया गया। कम पढे-लिखे नेताओं तथा कुछ लोगों के आपत्तिजनक बयानों तथा व्यवहार पर कुछ चिकित्सकों ने भी अपने दहशत भरे अतीत की दुहाई पर धमकी भरे वक्तव्य ही नहीं दिये बल्कि खास कानूनों के तहत प्राथमिकी तक दर्ज करने के लिए अपने संगठनात्मक स्वरूप तक को प्रस्तुत कर दिया। सरकारी और गैर सरकारी लोगों में यह अंतर तो होता ही है। तंत्र से जुडे विभिन्न विभागों के लोगों में आपसी सहानुभूति होना स्वभाविक ही है। मरीजों का अपना कोई संगठन तो होता नहीं है और न ही चिकित्सकों के कर्तव्यों के निरीक्षण को कोई संवैधानिक अधिकार किसी नागरिक के पास होता है। ऐसे में जनसेवक के रूप में नियुक्त हुए अधिकारी और कर्मचारी केवल अपने वरिष्ठ जनसेवक के पद पर पदस्थ व्यक्ति को ही संतुष्ट करने के लिए एक सीमा तक ही बाध्य हैं। जनसेवक कहीं भी जन की सेवा करते तो दूर सम्मान देते भी नहीं दिखते। इस में कुछ अपवाद हो सकते है, जिन्हें अदृष्टिगत नहीं किया जा सकता। परन्तु यह भी सत्य है कि कहीं आम आदमी का उपयोग दलगत राजनीति के लिए चन्द लोग करते हैं तो कहीं आम आदमी के हितों के नाम पर सरकारी योजनाओं की कागजी उपलब्धियां ही सामने आतीं है। इन कागजी उपलब्धियों को रेखांकित करने का दायित्व भी तो जन के पास नहीं है। उदहारण के तौर पर देखें तो अनेक स्थानों पर तो सूचना का अधिकार मजाक बनकर रह गया है। हजारों के प्रकरण अपीलीय अधिकारियों के पास लम्बित हैं जिन की कोई सुनवाई नहीं हो रही है। ऐसे में भीडतंत्र को जातितंत्र के विकराल रूप में स्थापित करने वाले भोले बाबा बनकर स्वयं अपने लिए भस्मासुर पैदा कर रहे हैं जो वरदान मिलते ही उन्हें ही समाप्त करने के प्रयास शुरू कर देंगे। कुल मिलाकर आधुनिक युग में मुफ्तखोरी की घातक आदत के साथ-साथ जातितंत्र की स्थापना से देश में समानता, संतुलन और सहयोग की जैसे कारक अस्तित्वहीन होने की कगार पर पहुंच देर नहीं लगेगी। साइबर संसाधनों का उपयोग करके राष्ट्रव्यापी कथित आन्दोलन मिनिटों में उठ खडे हो जायेंगे। इन्हें रोकने, कुचलने और संविधान का भय दिखाने हेतु देश के पास कोई कठोर साइबर क्राइम संसाधन या कानून वर्तमान में नहीं है। विदेशी धरती पर बैठकर षडयंत्रकारियों के आका सेटलाइट के माध्यम से सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म का डंके की चोट पर अपने मंसूबों को अमली जामा पहना रहे हैं। फिलहाल इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।