पूर्वांचल में पकने को चुरना कहते हैं, पूर्वांचल में भात चुर रहा होता है

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उत्तर भारत में चावल पक रहा होता है पर हमारे पूर्वांचल में भात चुर रहा होता है! ज़ी हाँ पूर्वांचल में पकने को चुरना कहते हैं।

इसी तरह की बड़ी छोटी भदेली (बटोली) में चूल्हे पर दाल और भात बनाया जाता था इसके लिए पतीले इस्तेमाल नहीं किये जाते, उत्तर भारत की तरह और चावल से मांड (स्टार्च ) निकाळ क़र उसे भी फेंका नहीं जाता था, बल्कि घर के पशुओं के लिए सहेज लिया जाता था, सानी पानी गोतने के लिए.. कभी कभी उसी मांड में नमक मिर्च का तड़का लगा क़र खुद भी उसकी दावत उड़ा ली जाती थी… वैसे कहीं कहीं आज भी समाज का गरीब वर्ग इसे अगर दाल ना हो तोह मांड भात खा क़र भी अपना गुजरा चला लेता है… पर मांड को कभी वेस्ट नहीं जाने दिया जाता..

चूल्हे की आग पर बर्तन काले हो जाते थे इसलिए उसे राख या मिट्टी का मोटा सा लेवनक लगा क़र ही आग पर चढ़ाया जाता था। चूल्हे के मुँह पर जो मिट्टी के दो खप्पड़ देख रहे हैं उसे उचकन कहते है। उचकन लगाने से चूल्हे की आंच और धुआं बाहर निकलता रहता है (Cross Ventiletion), इससे बर्तन में आंच भी अच्छी तरह से लगती है और चूल्हा भी समुथली जलता है। धुंवा सीधे ऊपर निकल जाता है।

उस समय प्रेशर कुकर तोह होते नहीं थे इसलिए पहले अंदाज लगा कर पानी को गर्म करने के लिए रख दिया जाता था जिसे अदहन रखना कहते थे। अदहन का पानी ठीक से गर्म होने के बाद और उबलने से पहले दाल, चावल धोकर डाल दिया जाता था और उसी समय पानी हो या नमक हो डाल दिया जाता था।

भोजन में इनकी मात्रा इस बात पर निर्भर करती थी की, कितने लोगों के लिए भोजन बनना है, का अंदाजा गृहणी का बड़ा सटीक हुआ करता था। भोजन हमेशा से थोड़ा एक्स्ट्रा ही बनाया जाता था.. क्यूंकि कभी भी कोई भी मेहमान अचानक आ जाये तोह… और खास तौर पर भोजन के समय के आसपास आ जाए तोह बिना भोजन करवाए जाने देने का रिवाज़ ही नहीं था.. इसे उस परिवार का गौरव और सम्मान आज भी माना जाता है, गाँव में आज भी एक अच्छे गृहस्थ की यही पहचान मानी जाती है… दरवाजे आये को तुरंत मीठा और पानी पिलाना और दूर से आया हो तोह बिना भोजन जाने ना देना.. गाँव में तोह उलाहना भी यही दिया जाता है की उनके दरवाजे पर तोह कोई पानी भी नहीं पूछता.. आज भी गाँव के लोगों के पास तिजोरी में नोट भले हों ना हों पर अनाज के कोठीले आज भी भरे मिलते हैं…

एक सफल गृहणी की पहचान यही थी, की अचानक से किसी कार्य प्रयोजन से परिवार के सद्स्य भी अगर बढ़ जाते थे तब भी भोजन में सबकुछ एकदम परफेक्ट बनता था। अब की तरह नापने के लिए चम्मच नही होते थे, इसलिए हथेली पर रखकर नमक का अंदाज लग जाता था और और कितने लोगों का भोजन बनना है, अंजुली में भरकर दाल चावल का हिसाब लगाया जाता था।
कम पढ़ी लिखी होती थी तब की गृहणियां लेकिन रसोई में उनका हिसाब एकदम सटीक होता था। मजाल है कि भोजन कम पड़ जाए या नमक मिर्च उपर नीचे हो जाए।

जिस प्रकार से हम अब भी चाय बनाने के लिए चाय का पानी पहले चढ़ाते हैं उसी प्रकार तब दाल चावल का अदहन रखा जाता था और पानी के उचित तापमान पर दाल चावल डाले जाते थे, ठंडे पानी में नहीं। इसलिए लोग आज भी चूल्हे के भोजन को याद करते हैं, आजकल तोह रेस्टुरेंट्स में भी ट्रेंड चल गया है, समोकी फ्लेवर परोसने का, पर तब जो भोजन होता था उसमें प्राकृतिक समोकी फ्लेवर होता था, इसलिए उनका स्वाद हम आजभी नही भूलते।

तब भोजन बनाने, खिलाने, यहाँ तक की परोसने का तरीका अलग होता था, और भोजन ज़ब आत्मीयता से बनाया और परोसा गया हो तोह प्रसाद बन जाता है… आजकल की तरह नहीं की फॉर्मेलिटी पूरी क़र दी खाना बनाने की, मेहमान देखा नहीं की त्योंरी चढ़ा ली की ये आ क्यूँ गए… प्यार से बनाने और खिलाने में जो प्यार का तड़का लगता था जिससे भोजन का स्वाद कई गुना बढ़ जाता था। भोजन भले कच्चा भोजन कहलाता हो पर वास्तविक संतुष्टि आजभी वही प्रदान करता है… जैसे रोज दावतों से परेशान हों तोह खिचड़ी सबसे प्यारी लगती है

(Note कच्चा भोजन मतलब तला भुना कुछ नहीं बायलड फ़ूड )
प्रस्तुति- विकास भारतीय

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