भारत की पवित्र, पावन भूमि एक और जहां धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान स्थली रही है, वहीं यह अन्यानेक वीर एवं वीरांगनाओं की जन्मस्थली भी रही है। बहादुरों की वीरता से परिपूर्ण इतिहास हमारे लिए बेहद गर्व का विषय है। इनके अदम्य साहस, शौर्य एवं वीरता ने भारत का नाम ऊँचा किया है। इस ऐतिहासिक कड़ी में एक अमूल्य हीरा भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम की महान क्रांतिकारी वीरांगना नारी वीणा दास हैं।

जन्म –24 अगस्त सन 1911 कृष्णानगर तत्कालिक अविभाजित बंगाल.
देहावसान – 26 दिसंबर सन 1986 ऋषिकेश, उत्तराखण्ड.

उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध नगर ऋषिकेश में गङ्गा किनारे चार दिन से सड़ी हुई एक लाश मिली थी। भीड़ इकट्ठी हो गयी, पुलिस बुला ली गयी, सबने लाश से बार बार पूछा- “लाश! कौन हो तुम?” लाश का मुँह सड़ गया था, वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। भारत में पुलिस के आगे जीवित लोग नहीं बोल पाते, वह तो फिर भी लाश थी। हाँ, उसके कपड़ों ने बताया – वह एक बूढ़ी बंगालन स्त्री थी।

किसी ने कहा कि मुक्ति मिल गयी, किसी ने परिजनों के लिए धिक्कार की गालियां गढ़ीं। पुलिस ने चौकीदारों से लाश को तिरपाल में लपेटवाया और ले गयी। चौकीदारों ने मन ही मन गालियां दी “ऐसी नौकरी तो साली दुश्मन को भी न मिले”
पुलिस मुख्यालय में अधिकारी महीनों तक लाश से उसका परिचय पूछते रहे। बीच बीच में कुछ पत्रकारों ने भी पूछा, शहर की समाजसेवी संस्थाओं के लोगों ने पूछा, उस इलाके के नेताओं ने पूछा, पर कोई उत्तर नहीं मिला। इन सबने मिल कर महीनों तक कड़ियां जोड़ीं। जाँच हुई, गायब हुए लोगों का पता किया गया,अंदाजे लगाए गए। अब लाश बोलने लायक हुई, लाश जानती थी कि यह जादुई यथार्थवाद का युग है, सो उसने बोलने के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। इंस्पेक्टर ने अबकी पूछा तो लाश सुगबुगाई। पुलिस को बल मिला, इंस्पेक्टर ने पूछा- “बुढ़िया बता! किसकी लाश है तू?”

लाश बोली- “वीणा दास को जानते हो दारोगा साहब?” 
कौन वीणा दास? मैं नहीं जानता किसी वीणा बीना को। 
पद्मश्री वीणा दास! सुभाष चन्द्र बोस के गुरु बेनीमाधव दास और समाजसेवी कमला देवी की पुत्री वीणा दास। वही वीणा, जिसे अंग्रेज गवर्नर को गोली मारने के कारण कालापानी की सजा हुई थी। जिसने काला पानी की सेलुलर जेल में दस वर्ष काटे थे। 
यह कौन सी कथा है रे बुढ़िया? मैंने तो कभी नाम तक नहीं सुना कहकर इंस्पेक्टर झुंझला गया था। 
लाश ठहाके लगा कर हँसने लगी और कुछ देर बाद बोली- “कोई बात नहीं साहब! आजाद भारत क्यों याद रखे स्वतन्त्रता संग्राम को? सुख के दिनों में दुख की कथाएँ कौन गाये।”

“अच्छा तो तू ही बता दे उनके बारे में” सब एक साथ चीखे तो लाश हँसी और बोली – सुनो! वीणा के पिता बंगाल के क्रांतिकारियों में प्रतिष्ठित और पूज्य थे। उसकी माँ लड़कियों के लिए विद्यालय चलाती थी। बचपन से ही उसने सुभाष बाबू को अपने घर आते देखा था और उनसे बहुत प्रभावित रहती थी। अब सबकी निगाह लाश पर जम गई थी, वह बोलती गयी – कलकत्ता विश्वविद्यालय से उसने बी.ए. की परीक्षा पास की थी। दीक्षांत समारोह के दिन ही उसने अपने जीवन को सार्थक करने का मन बनाया था। इस काम में उसके पिता और मां दोनों उसके साथ थे, माँ ने जाने कहाँ से ला कर उसे भरी हुई पिस्तौल दी थी। विश्वविद्यालय में डिग्री बांटने के लिए गवर्नर स्टैनली जैक्शन आया था। वह जैसे ही मंच पर खड़ा हुआ, वीणा उठ कर आगे बढ़ी और फायर झोंक दिया। गोली गवर्नर की कनपट्टी को छूती हुई निकल गयी। वह दूसरा फायर करती तब तक इंस्पेक्टर सोहरावर्दी ने एक हाथ से उसका गला पकड़ लिया और दूसरे हाथ से उसके पिस्तौल वाले हाथों को ऊपर उठा दिया। वह फिर भी फायर करती रही, उसके पांचों फायर बेकार गए थे।  जैसा कि इस लेख में बताया गया है, आप स्मार्टफोन और शीर्ष ब्रांडों पर उपलब्ध सौदों के अपने चयन को ब्राउज़ कर सकते हैं और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप सर्वोत्तम सेवा योजनाओं का पता लगा सकते हैं।
सबके चेहरे पर आश्चर्य पसरा हुआ था। वे सन्न पड़े चुपचाप सुन रहे थे। लाश ने कहा – उसके बाद केस चला, दस साल की सजा हुई सन 1939 तक सजा काटी। छूटने के बाद फिर आंदोलनों में सक्रिय हो गयी, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी जेल गयी। 1947 में देश आजाद हुआ तो वीणा ने विवाह कर लिया। आयु 36 की हो गयी थी, पर सोचा कि अब सुखी जीवन जीने के दिन हैं, पर शायद ईश्वर को मंजूर नहीं था। पति का देहांत हुआ और फिर आगे पीछे कोई न दिखा तो वीणा ऋषिकेश आ गयी। एक स्कूल में पढ़ाती, उसी से खर्च चल जाता था। एक दिन आया जब उम्र देह पर भारी पड़ने लगी, पढ़ाने की शक्ति नहीं रही। कुछ दिन इधर उधर से मांग कर पेट भर लिया और एक दिन सड़क पर चलते चलते ठोकर लगी, ऐसी गिरी कि उठ न सकी अंततः वहीं से विदा ली।

ओह हे! भगवान तुम मतलब आप वही हैं? 
“हाँ जी! पर दुखी मत होवो आप लोग! जब मैं दुखी नहीं तो तुम लोग क्यों हो रहे हो? मुझे मेरा देश बहुत प्रिय है, मैं यहाँ मर कर भी बहुत प्रसन्न हूँ।”

लेकिन सरकार को तो आपकी व्यवस्था करनी चाहिये थी, इतनी बुरी मृत्यु उफ्फ! सरकार तो सरकार ही होती है, वह अंग्रेजों की हो या भारतीयों की हो कुछ नहीं बदलता! जिसे देश की जनता ही भूल जाय उसे सरकारें क्या याद रखेंगी। 
भीड़ छंटने लगी, सब अपने अपने काम में लगे, लाश भी जला दी गयी। पर इंस्पेक्टर के साथ कुछ गड़बड़ हो गया। वह जब भी अपने कार्यालय में टंगा भारत का नक्शा देखता तो उसे उसमें लाश की तस्वीर दिखती, और तब उसकी आँखों में केवल लज्जा होती थी।
विश्व हिन्दू परिषद-उत्तराखण्ड

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