शक्ति-पर्व पर कल्याण कलश की स्थापना का अवसर

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से पिण्डीय सामर्थ को विकसित करने हेतु ज्योतिष शास्त्र और नक्षत्रीय विज्ञान में नवरात्रि महापर्व पर की जाने वाली साधनाओं का उल्लेख किया गया है। सनातन धर्म में चैत्र माह के नवरात्रिकाल को शक्ति पर्व के रूप में मनाने की परम्परा रही है। इस हेतु काया में स्थापित पिण्ड को ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों से जोडने का विधान है जिसमें स्व: की आन्तरिक क्रियायें तीव्र करना पडती हैं। संगदोष से रहित होकर विचार शून्यता की स्थिति में पहुंचा जाता है, तभी एकाग्रता के केन्द्रीयकरण से चिन्तन की सामर्थ व्दारा परा-शक्तियों के साथ जुडाव होता है। इसी जुडाव को योग भी कहा जाता है। अतीत की अनुभूतियों और भविष्य की कल्पनाओं के चिन्तन में हमेशा लगे रहने वाले मन के शान्त होते ही अन्त:करण में एक रिक्तिता का भान होने लगता है। इस खालीपन को भरने के लिए अनन्त की शक्तियों का प्रवाह तरंगों के माध्यम से प्रारम्भ हो जाता है। अध्यात्म के गूढ रहस्यों, परा-विज्ञान के जटिल सूत्रों और शाश्वत के ज्ञान की दिशा में बढने के लिए सद्गुरु की महती आवश्यता होती है। सद्गुरु न केवल अध्यात्म, परा-विज्ञान और शाश्वत की त्रिवेणी में स्नान कर चुका होता है बल्कि दूसरों को स्नान करने के सामर्थ पर भी अधिकार रखता है। ऐसे सामर्थवान लोग बाह्य दिखावे, तुच्छ चमत्कार और बाजीगरी से कोसों दूर रहते हैं। उनकी साधनात्मक सुगन्ध स्वमेव ही वातावरण में फैलती है। उनके चुम्बकीय ऊर्जा चक्र से आगन्तुक अपने आप रोमांचित हो उठता है, वैचारिक झंझावतों का शमन होने लगता है और होने लगाता है एक अनजानी सी शान्ति का बोध। वर्तमान में कथित चमत्कारों से आकर्षित करने वाले बाबाओं की भीड निरंतर बढती जा रही है। सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक समस्याओं से ग्रस्त लोगों की भीड जादुई करिश्मे की आशा में ढौंगी बाबाओं के दरबारों में माथा टेकने लगते हैं। टोने-टोटकों की दम पर अतीत की घटनाओं को बताने वाले धनलोलुप लोग अपनी कुटिल चालों, सोशल मीडिया और चन्द सिपाहसालारों की दम पर अन्धविश्वास परोसने में लगे हैं। यह अध्यात्म नहीं है, यह धर्म भी नहीं है और न ही होता है इसका कोई स्थाई परिणाम। जैसे दर्द नाशक दवा खाने से रसायन के असर रहने तक मस्तिष्क में पीडा के संदेश रुक जाते हैं परन्तु असर समाप्त होते ही कष्ट का विकराल स्वरूप सामने आने लगता है। ठीक ऐसा ही टोटकेबाजों के तिलिस्म का प्रभाव होता है। यहां पर बाह्य रसायन नहीं दिया जाता बल्कि मानसिक खुराक की आपूर्ति होती है। टोटकेबाजों के पास पहुंचते ही वहां के वातावरण में व्याप्त कही-सुनी घटनाओं की चर्चाओं का बाहुल्य, एक अनोखी सुगन्ध का अहसास, जयकारों की गूंज, दिखावटी क्रियाओं का प्रत्यक्षीकरण, सिंहासन की गरिमा, दरबार में बैठी अनुयायियों की भीड जैसे मानसिक प्रभाव डालने वाले कारक पहले से ही मौजूद रहते हैं। इन सब का प्रभाव आगन्तुक की मन:स्थिति पर पडने लगता है और वह वहां के सम्मोहित करने वाले तत्वों का शिकार हो जाता है। बस यहीं से शुरू हो जाती है आगन्तुक के शोषण की प्रक्रिया। सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक सामर्थ के अनुरूप टोटकेबाजी का दिग्दर्शन कराया जाता है, सम्मान दिया जाता है और फिर सेवा के नाम पर होने लगती है वसूली। बार-बार आने, विश्वास करने और प्रदान किये गये कर्मकाण्ड की नित्यावृति के निर्देशों के तले याचक दबता चला जाता है। समस्या की विकरालता, अनिष्ट का भय और कृपा से निदान की गारन्टी दी जाती है। ऐसे जाल में फंसने वाले लम्बे समय तक टोटकेबाजों के शोषण का शिकार होते रहते हैं। तिलिस्म टूटने की स्थिति तक पहुंचने-पहुंचते वे बरबाद हो चुके होते हैं। वहीं दूसरी ओर सत्य के मार्ग पर चलने वालों पर सहजता, सरलता और सौम्यता का आवरण पडा रहता है। प्रकृति के साथ सामंजस्य करने वाली अनुशासनात्मक जीवन शैली का अनुशरण करने वाले साधकों को पहचानना बेहद कठिन होता है। सांसारिक वैभव से दूर रहने वाले ऐसे साधकों के लिए परमानन्द से बडा कोई सुख नहीं है। इष्ट के निरंतर चिन्तन से बढकर कोई कार्य नहीं है। बिना दिखावे के परमार्थ करने के कारण अहंकार भी नहीं है। ऐसे लोगों के सानिध्य में आते ही परिवर्तन की बयार चलने लगती है। सुखानुभूति होने लगती है। नश्वर भौतिक जगत की वास्तविकता का बोध होने लगता है। देश-दुनिया में न्यूनतम आवश्यकताओं पर सांसों की कदमताल करने वाली साधनात्मक कायाओं का अकाल नहीं है परन्तु उन्हें पहचानने हेतु अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। समाज के प्रति, जीवों के प्रति और स्व: के प्रति संवेदनशील लोगों के लिए सद्गुरु के दर्शन, उनकी कृपा और मार्गदर्शन का सुयोग स्वत: ही बनने लगता है। संकेतों की भाषा में सत्य की परिभाषायें सामने आने लगतीं है। दया के भाव से उदित होने वाले कल्याणकारी कार्य अपने आप संपादित होने लगते हैं। शक्ति-पर्व पर कल्याण कलश की स्थापना का अवसर सामने है। इस काल में अनन्त की ऊर्जा का प्रवाह तीव्रतम होता है जिसे साधनात्मक प्रक्रिया से ग्रहण किया जा सकता है। यही ऊर्जा आने वाले समय में जीवधारियों से लेकर प्रकृति तक के मध्य प्रेम, अपनत्व और सहकारिता की भावना विकसित करती है। धर्म के वास्तविक स्वरूप में जीवन जीने की विशेष पध्दति, समाज विशेष की विभेदकारी व्यवस्था या थोपी गई क्रियात्मक दक्षता का नितांत अभाव होता है। धर्म तो शाश्वत सत्य को विश्वास, श्रध्दा और प्रेम के सिध्दान्तानुसार ही समझा जा सकता है। देश, काल और परिस्थितियों से उपजी भाषा, क्षेत्र, मान्यता आदि की विभाजनकारी संस्कृतियों का इससे कोई संबंध नहीं होता। ईद और शक्ति-पर्व का समुच्चय धनात्मक दिशा में सुगन्ध का वातावरण निर्मित करने हेतु अवतरित हुआ है। इसमें वैमनुष्यता, कटुता और हिंसा का कोई स्थान नहीं है परन्तु फिर भी धर्म के कथित ठेकेदार अपनी भौतिक स्वार्थ-सिध्दि हेतु षडयंत्रों को अमली जामा पहनाने की फिराक में हैं। साधनात्मक काल को विकृत होने से बचाने का दायित्व केवल सरकारों का ही नहीं बल्कि प्रत्येक नागरिक का भी है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist