रोकना होगा अवैध संस्थाओं का बढता वर्चस्व

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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

देश की संवैधानिक व्यवस्था को जनबल के आधार पर चुनौतियां देने का क्रम निरंतर तेज होता जा रहा है। समान हितों के पोषण के लिए जुटे लोगों के समूह ने समय-समय पर पुरातन व्यवस्था की दुहाई पर स्वयं के अस्तित्व को बचाने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि कानून का खुलेआम मुखौल उडाने की भी कोशिश की। कथित शोषण से संरक्षण देने के नाम पर संगठनों का निर्माण करने वाले लोग, व्यक्तिगत हितों की जडों में पोषणता की खाद डालने लगते हैं। इनके अपवाद भी मौजूद हैं परन्तु सकारात्मक पहल करने वालों की संख्या नगण्य ही होती है। कभी जातिगत संगठनों के हिंसक तेवर सामने आते हैं तो कभी सम्प्रदायगत गुटों के आंतक का प्रत्यक्षीकरण होता है। कभी भाषा को हथियार बनाकर कथित पक्षपात के नारे बुलंद होते हैं तो कभी क्षेत्रीयता को विस्फोटक बनाकर पेश किया जाता है। वर्तमान मेें सत्यपाल मलिक का मामला खूब सुर्खिया बटोर रहा है। चार राज्यों के राज्यपाल रह चुके सत्यपाल मलिक को सीबीआई व्दारा जम्मू-कश्मीर के बीमा घोटाले के मामले में बुलाया गया। इस घोटाले में जम्मू-कश्मीर के किरु पनबिजली परियोजना तथा सरकारी कर्मचारियों के चिकित्सा बीमा योजना के ठेके देने में भ्रष्टाचार की बात को रेखांकित करते हुए दो प्राथमिकी दर्ज की गईं है, जिनकी जांच सीबीआई कर रही है। जांच एजेन्सी ने रिलायंस जनरल इंश्योरेंस तथा ट्रिनिटी री-इंश्योरेंस ब्रोकर लिमिटेड तथा कुछ अज्ञात लोक सेवकों को राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए स्वस्थ्य बीमा योजना से संबंधित प्राथमिकी में आरोपी बनाया है। शिकायत में कुछ लोकसेवकों व्दारा पद के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार तथा मिली भगत जैसी स्थितियों करने को रेखांकित करते हुए पूरे प्रकरण को साजिश करार दिया गया है। वहीं दूसरी प्राथमिकी में सीबीआई ने आरोप लगाया है कि वर्ष 2019 में निजी कम्पनी को किरु हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के सिविल कार्यों के लगभग 2,200 करोड रुपये के ठेके दिये जाने में ई-टेंडरिंग से संबंधित दिशा निर्देशों का पालन नहीं किया गया। इस संदर्भ में सत्यपाल मलिक ने दावा किया है कि विगत 23 अगस्त 2018 और 30 अक्टूबर 2019 के बीच जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान दो फाइलों को मंजूरी देने के लिए उन्हें 300 करोड रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी। इस पूरे प्रकरण में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि पूरा देश आपके यानी सत्यापाल मलिक के साथ खडा है वहीं कांग्रेस ने घटनाक्रम की संभावनाओं को बल दिया है। कुछ खाप प्रधानों ने इस प्रकरण में तत्कालीन राज्यपाल के विरुध्द किसी भी प्रकार के संवैधानिक कदम के विरोध में खडे होने की चुनौती दे दी है। सीबीआई ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यापाल मलिक को पूछतांछ के लिए बुलाया, तो राजनैतिक दावपेंच सामने आने लगे। वर्तमान में अप्रासांगिक हो चुकी रियासतकालीन न्यायिक व्यवस्था की आड में खाप पंचायतों ने एक बार फिर जनबल के आधार पर स्वयं भू न्यायाधीश की भूमिका निभाना शुरू कर दी। अनेक खाप पंचायतों के मुखियों ने किन्हीं खास कारणों से पूर्व राज्यपाल के साथ खडे होकर केन्द्र सरकार सहित अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर प्रहार करना शुरू कर दिया। सर्वजातीय कंडेला खाप के प्रधान ओम प्रकाश कंडेला, नौगामा खाप के प्रधान दलबीर सिंह, खटखड खाप के उप प्रधान लीला छापडा सहित अनेक लोगों ने सत्यपाल मलिक के पक्ष में खडे होकर व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दी। इस पूरे प्रकरण में खाप की भूमिका का विश्लेषण करने से पहले उसके वर्तमान अस्तित्व को समझना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने खाप पंचायत को सिरे से नकारते हुए उसे अवैध घोषित कर दिया था किन्तु चन्द लोगों के बाहुबल के आधार पर जुटायी गई लोगों की भीड को जनबल के रूप में प्रदर्शित करके तंत्र को झुकाने का काम लम्बे समय से होता रहा है। स्वयं को किसान नेता के रूप में प्रचारित करने वाले महेन्द्र सिंह टिकैत के दौनों बेटों ने विरासत में मिली पहचान को स्थाई रखने की गरज से प्रयास शुरू कर दिये थे। राकेश टिकैत ने किसान नेता और नरेश टिकैत ने बलियान खाप का प्रधान बनकर आक्रामक तेवरों के साथ तंत्र को चुनौती देने के क्रम को निरंतर जारी रखा। खाप पंचायतों का कानूनी आधार न होने के बाद भी इस अवैध संस्था ने दबंगई का प्रदर्शन करके अनेक विवादास्पद निर्णयों से समाज को लहूलुहान ही नहीं किया बल्कि संवैधानिक संरचना को भी हिलाने की कोशिश की। जाति या गोत्र विशेष को आंतरिक व्यवस्था देने के नाम पर खाप पंचायतों का गठन करने की परम्परा रियासतकाल से चली आ रही है। इसका बाहुल्य उत्तरी भारत के हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है। पालम खाप में 364 गांव, तोमर खाप में 84 गांव, मितरोले खाप 24 गांव, कराला खाप में 17 गांव, बडवासनी खाप में 12 गांव, चौहान खाप में 5 गांव शामिल किये जाते हैं। प्रत्येक गांव में एक परिषद होती है जिसे पंचायत कहा जाता है। ऐसी ही 7 पंचायतों को मिलाकर एक इकाई गठित होती है जिसे थंबा नाम दिया गया है और 12 थंबा को मिलाकर एक खाप पंचायत बनाई जाती है। यह खाप पंचायतें आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बाहुबलियों के प्रभाव के विस्तार का साधन बनी हुईं हैं। इतिहास खंगालने पर सन् 1924 में सर्वजातीय खाप का विस्तार मिलता है जिसमें कबूल सिंह का नाम मंत्री के रूप में उल्लेखित है। इस तरह के संगठनों के अस्तित्व को बनाये रखने में राजनैतिक दलों की महात्वपूर्ण भूमिका रहती है। विसम परिस्थितियों में दलों के आकाओं के इशारों पर यह अपना विरोधात्मक स्वरूप दिखाकर सत्ताधारियों को वोटबैंक के नाम पर दबाव में लेते हैं। जाति विशेष को लाभ दिलाने, सुविधायें दिलाने तथा अवसर दिलाने के नाम पर ऐसे संगठन पर्दे के पीछे बैठे आकाओं के तुष्टीकरण का उपकरण बन जाते हैं। कभी आरक्षण का मुद्दा उछाला जाता है तो कभी जातिगत शोषण की इबारत लिखी जाती है। कभी मानवता की दुहाई दी जाती है तो कभी मौलिक अधिकारों की आड में चिल्लाचोट करने का क्रम शुरू हो जाता है। वैभव की आकांक्षा के पीछे दौडने वाले लोगों की भीड को आज राजनैतिक गलियारों में लाल गलीचे पर बैठाया जा रहा है, उनको सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं और दौडाया जा रहा है लाभ की मृगमारीचिका के पीछे। विभाजनकारी नीतियों के आधार पर सत्तासुख हथियाने की फिराक में लगे दलों के संरक्षण में अवैध संस्थाओं का निरंतर विकास होता जा रहा है। रोकना होगा अवैध संस्थाओं का बढता वर्चस्व अन्यथा चंद बाहुबलियों के कंधों पर सवार होकर जबरन लागू होने वाली मनमानियां, देश के नागरिकों का जीना हराम कर देंगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

रोकना होगा अवैध संस्थाओं का बढता वर्चस्व

देश की संवैधानिक व्यवस्था को जनबल के आधार पर चुनौतियां देने का क्रम निरंतर तेज होता जा रहा है। समान हितों के पोषण के लिए जुटे लोगों के समूह ने समय-समय पर पुरातन व्यवस्था की दुहाई पर स्वयं के अस्तित्व को बचाने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि कानून का खुलेआम मुखौल उडाने की भी कोशिश की। कथित शोषण से संरक्षण देने के नाम पर संगठनों का निर्माण करने वाले लोग, व्यक्तिगत हितों की जडों में पोषणता की खाद डालने लगते हैं। इनके अपवाद भी मौजूद हैं परन्तु सकारात्मक पहल करने वालों की संख्या नगण्य ही होती है। कभी जातिगत संगठनों के हिंसक तेवर सामने आते हैं तो कभी सम्प्रदायगत गुटों के आंतक का प्रत्यक्षीकरण होता है। कभी भाषा को हथियार बनाकर कथित पक्षपात के नारे बुलंद होते हैं तो कभी क्षेत्रीयता को विस्फोटक बनाकर पेश किया जाता है। वर्तमान मेें सत्यपाल मलिक का मामला खूब सुर्खिया बटोर रहा है। चार राज्यों के राज्यपाल रह चुके सत्यपाल मलिक को सीबीआई व्दारा जम्मू-कश्मीर के बीमा घोटाले के मामले में बुलाया गया। इस घोटाले में जम्मू-कश्मीर के किरु पनबिजली परियोजना तथा सरकारी कर्मचारियों के चिकित्सा बीमा योजना के ठेके देने में भ्रष्टाचार की बात को रेखांकित करते हुए दो प्राथमिकी दर्ज की गईं है, जिनकी जांच सीबीआई कर रही है। जांच एजेन्सी ने रिलायंस जनरल इंश्योरेंस तथा ट्रिनिटी री-इंश्योरेंस ब्रोकर लिमिटेड तथा कुछ अज्ञात लोक सेवकों को राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए स्वस्थ्य बीमा योजना से संबंधित प्राथमिकी में आरोपी बनाया है। शिकायत में कुछ लोकसेवकों व्दारा पद के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार तथा मिली भगत जैसी स्थितियों करने को रेखांकित करते हुए पूरे प्रकरण को साजिश करार दिया गया है। वहीं दूसरी प्राथमिकी में सीबीआई ने आरोप लगाया है कि वर्ष 2019 में निजी कम्पनी को किरु हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के सिविल कार्यों के लगभग 2,200 करोड रुपये के ठेके दिये जाने में ई-टेंडरिंग से संबंधित दिशा निर्देशों का पालन नहीं किया गया। इस संदर्भ में सत्यपाल मलिक ने दावा किया है कि विगत 23 अगस्त 2018 और 30 अक्टूबर 2019 के बीच जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान दो फाइलों को मंजूरी देने के लिए उन्हें 300 करोड रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी। इस पूरे प्रकरण में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि पूरा देश आपके यानी सत्यापाल मलिक के साथ खडा है वहीं कांग्रेस ने घटनाक्रम की संभावनाओं को बल दिया है। कुछ खाप प्रधानों ने इस प्रकरण में तत्कालीन राज्यपाल के विरुध्द किसी भी प्रकार के संवैधानिक कदम के विरोध में खडे होने की चुनौती दे दी है। सीबीआई ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यापाल मलिक को पूछतांछ के लिए बुलाया, तो राजनैतिक दावपेंच सामने आने लगे। वर्तमान में अप्रासांगिक हो चुकी रियासतकालीन न्यायिक व्यवस्था की आड में खाप पंचायतों ने एक बार फिर जनबल के आधार पर स्वयं भू न्यायाधीश की भूमिका निभाना शुरू कर दी। अनेक खाप पंचायतों के मुखियों ने किन्हीं खास कारणों से पूर्व राज्यपाल के साथ खडे होकर केन्द्र सरकार सहित अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर प्रहार करना शुरू कर दिया। सर्वजातीय कंडेला खाप के प्रधान ओम प्रकाश कंडेला, नौगामा खाप के प्रधान दलबीर सिंह, खटखड खाप के उप प्रधान लीला छापडा सहित अनेक लोगों ने सत्यपाल मलिक के पक्ष में खडे होकर व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दी। इस पूरे प्रकरण में खाप की भूमिका का विश्लेषण करने से पहले उसके वर्तमान अस्तित्व को समझना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने खाप पंचायत को सिरे से नकारते हुए उसे अवैध घोषित कर दिया था किन्तु चन्द लोगों के बाहुबल के आधार पर जुटायी गई लोगों की भीड को जनबल के रूप में प्रदर्शित करके तंत्र को झुकाने का काम लम्बे समय से होता रहा है। स्वयं को किसान नेता के रूप में प्रचारित करने वाले महेन्द्र सिंह टिकैत के दौनों बेटों ने विरासत में मिली पहचान को स्थाई रखने की गरज से प्रयास शुरू कर दिये थे। राकेश टिकैत ने किसान नेता और नरेश टिकैत ने बलियान खाप का प्रधान बनकर आक्रामक तेवरों के साथ तंत्र को चुनौती देने के क्रम को निरंतर जारी रखा। खाप पंचायतों का कानूनी आधार न होने के बाद भी इस अवैध संस्था ने दबंगई का प्रदर्शन करके अनेक विवादास्पद निर्णयों से समाज को लहूलुहान ही नहीं किया बल्कि संवैधानिक संरचना को भी हिलाने की कोशिश की। जाति या गोत्र विशेष को आंतरिक व्यवस्था देने के नाम पर खाप पंचायतों का गठन करने की परम्परा रियासतकाल से चली आ रही है। इसका बाहुल्य उत्तरी भारत के हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है। पालम खाप में 364 गांव, तोमर खाप में 84 गांव, मितरोले खाप 24 गांव, कराला खाप में 17 गांव, बडवासनी खाप में 12 गांव, चौहान खाप में 5 गांव शामिल किये जाते हैं। प्रत्येक गांव में एक परिषद होती है जिसे पंचायत कहा जाता है। ऐसी ही 7 पंचायतों को मिलाकर एक इकाई गठित होती है जिसे थंबा नाम दिया गया है और 12 थंबा को मिलाकर एक खाप पंचायत बनाई जाती है। यह खाप पंचायतें आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बाहुबलियों के प्रभाव के विस्तार का साधन बनी हुईं हैं। इतिहास खंगालने पर सन् 1924 में सर्वजातीय खाप का विस्तार मिलता है जिसमें कबूल सिंह का नाम मंत्री के रूप में उल्लेखित है। इस तरह के संगठनों के अस्तित्व को बनाये रखने में राजनैतिक दलों की महात्वपूर्ण भूमिका रहती है। विसम परिस्थितियों में दलों के आकाओं के इशारों पर यह अपना विरोधात्मक स्वरूप दिखाकर सत्ताधारियों को वोटबैंक के नाम पर दबाव में लेते हैं। जाति विशेष को लाभ दिलाने, सुविधायें दिलाने तथा अवसर दिलाने के नाम पर ऐसे संगठन पर्दे के पीछे बैठे आकाओं के तुष्टीकरण का उपकरण बन जाते हैं। कभी आरक्षण का मुद्दा उछाला जाता है तो कभी जातिगत शोषण की इबारत लिखी जाती है। कभी मानवता की दुहाई दी जाती है तो कभी मौलिक अधिकारों की आड में चिल्लाचोट करने का क्रम शुरू हो जाता है। वैभव की आकांक्षा के पीछे दौडने वाले लोगों की भीड को आज राजनैतिक गलियारों में लाल गलीचे पर बैठाया जा रहा है, उनको सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं और दौडाया जा रहा है लाभ की मृगमारीचिका के पीछे। विभाजनकारी नीतियों के आधार पर सत्तासुख हथियाने की फिराक में लगे दलों के संरक्षण में अवैध संस्थाओं का निरंतर विकास होता जा रहा है। रोकना होगा अवैध संस्थाओं का बढता वर्चस्व अन्यथा चंद बाहुबलियों के कंधों पर सवार होकर जबरन लागू होने वाली मनमानियां, देश के नागरिकों का जीना हराम कर देंगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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