रोकना होगा कट्टरता की विसात पर राजनैतिक पांसों का खेल
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र में अव्यवस्थाओं, मनमानियों और अधिकारों की दुहाई पर सत्ता-सुख की चाहत निरंतर चरम सीमा की ओर बढती जा रही है। सत्ता-सुख की चाहत यानी कि समग्र पर अधिकार दिखाने की इच्छापूर्ति के प्रयास। इन प्रयासों में देश के घोषित तीन स्तम्भों सहित अघोषित चौथे स्थम्भ में भी आपसी होड मची है। कहीं संविधान की रोशनी में अनेक बार विधायिका ने कानूनों को सत्ताधारी दलों की अप्रत्यक्ष मंशा के अनुसार तोडा, मरोडा और थोप दिया। तो कहीं कार्यपालिका के व्दारा अक्सर समय की मांग के विशेषाधिकार के तहत मनमाने अंदाज में तुगलकी फरमान जारी किये, कानूनों के अनुपालन से लेकर कर्तव्यों के निर्वहन तक में लापरवाहियां बरतीं गईं और व्यक्तिगत लाभ दूरगामी परिणामों हेतु वर्तमान के कृत्यों को अंजाम दिया गया। वहीं न्यायपालिका के दरवाजों पर अन्याय, अमानवीयता और मानवाधिकारों को ढाल के रूप में स्थापित करके दस्तक देने वालों ने संवैधानिक लचीलेपन का लाभ उठाने की कोशिशें कीं। यह सब विश्व गुरू बनने की दिशा में पुन: अग्रसर होते देश में अब बहुत तेजी से हो रहा है। स्वाधीनता के बाद से ही गोरों के इशारों पर देश का बंटाधार होता रहा है जिसमें अब अनेक पश्चिमी देशों ने भी भागीदारी शुरू कर दी है। पडोसी देश पाकिस्तान, श्री लंका, बंगला देश के अलावा दुनिया के अनेक राष्ट्रों को शक्तिशाली देशों ने दूरगामी नीतियों के तहत बरबाद कर दिया। इच्छित परिणाम मिलने से उनके हौसले बुलंद होते चले गये। जब तक भारत दबा, कुचला और निरीह राष्ट्र की श्रेणी में रहा, तब तक षडयंत्रकारियों की जमातों ने उसे खोखला करने में कोई कसर नहीं छोडी। कमजोर को अस्तित्वहीन करने हेतु भितरघातियों के माध्यम से प्रयास होते रहे। धर्म की राजनीति करके सत्ता सुख की चाह रखने वालों की नब्ज पर अंग्रेजों ने पहले से ही पकड बना रखी थी। आज भी हमारे देश के अनेक राजनैतिक दलों के कद्दावर नेता वहां से नई-नई तरकीबें सीखकर आते हैं और प्रयोग के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इतिहास गवाह है कि सन् 1757 में शक्तिशाली सिराजुद्दौला को हराने हेतु गोरों ने लालची, मक्कार और भितरघातिये मीर जाफर को ढूंढा निकला था। गद्दारी की इबादत लिखकर मीर जाफर ने गोरों की कठपुतली बनकर सिंहासन पर कब्जा किया। कुछ समय बाद अहसान फरामोशी की पर्याय बनी गोरी नस्ल ने मीर जाफर के लिए चोर पर मोर का हथियार आजमाया और मीर कासिम को भतिरघातिया बनाकर मीर जाफर को नस्तनाबूत कर दिया। ऐसा ही ग्वालियर के महाराज जयाजी राव सिंधिया ने भितरघातिया बनकर अंग्रेजों के इशारे पर झांसी का रानी लक्ष्मीबाई की हत्या करवा दी। सत्ता-सुख की मृगमारीचिका के पीछे भागने वालों के अहंकार को गोरों ने खूब भुनाया। फणीन्द्रनाथ घोष का नाम भी राष्ट्र भक्तों को नस्ताबूत करने वालों की खूनी फेरिस्त में कालिख से आज भी लिखा है। इसने भारत माता को परतंत्रता की बेडियों से मुक्त करने वाले रणबांकुरों को फांसी के फंदे पर पहुंचाने में अंग्रेजों के मदद ही नहीं की बल्कि लालच, अहंकार और ढीढता की चरम सीमा पर पहुंचकर सैण्डर्स मर्डर और एसेम्बली में बम फैकने के केसों में खुलेआम गवाही भी दी थी। आज उन्हीं गोरों को पछाडकर देश की अर्थ व्यवस्था ने दुनिया की पांचवी पायदान पर आमद दर्ज कर ली है। कभी सत्ताधारी रही अंग्रेजों की जमात को अपने गुलाम रहे देश से मिली करारी शिकस्त ने हिलाकर रख दिया। उसे खून का घूंट पीकर रह जाना पडा। अतीत गवाह है कि षडयंत्रकारी गोरों ने पहले देश को भितरघातियों की मदद से गुलाम बनाया, खनिज संपदा के दोहन से लेकर मानवीय शक्ति तक का शोषण किया और फिर अपनी धरती के कैम्ब्रिज कैम्पस से चलाया भितरघातिये तैयार करने का अभियान से तैयार किये विषपुत्र जो वर्तमान में टुकडे-टुकडे गैंग से लेकर आतंकवादियों तक के पक्ष में ढीढता से खडे हो जाते हैं। देश के ज्यादातर भगोडों ने गोरों की गोद में ही किलकारियों भरीं हैं। वही क्रम अनेक मिशनरीज़ की आड में आज भी जारी है। स्वाधीनता के बाद काले अंग्रेजों ने देश का अनेक सम्पत्तियों पर गोरों को कानूनन मालिकाना हक दे दिया गया, धर्म के नाम पर संविधान में विभाजनकारी व्यवस्थायें दी गईं, जातियों के नाम पर वैमनुष्यता फैलाने वाले बीजों का रोपड किया गया, देश के पुरातन सिध्दान्त वसुधैव कुटुम्बकम को नस्तनाबूत कर दिया गया। लम्बे समय तक गंगा-जमुनी संस्कृति के रूप में विविधता में एकता का परचम फहराने वालों के हाथों मेें हरे और भगवां झंडे पकडा दिये गये। अतीत में बोये गये जहरीले बीज अब फसल बनकर लहलहा रहे हैं। नवरात्रि और रमजान जैसे पावन अवसर पर खून की होलियां खेली गईं। बिहार के नालंदा, सासाराम, गया, नवगछिया, बिहार शरीफ, सहजालाल पीर, कदीर गंज, लखनु सराय, जलाल पीर में सडकें मानवता के रंग से लाल होतीं रहीं और पुलिस-प्रशासन की जुगलबंदी सत्ता के इशारे पर मटरगस्ती करती रही। गुजरात के फतेहपुरा, वडोदरा की कहानी भी बिहार से अलग नहीं है। ऐसा ही महाराष्ट्र के संभाजी नगर, जलगांव में भी होता रहा। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, मडियाओं आदि में रक्त रंजित कहानियों का सजीव मंचन होता रहा। झारखण्ड के जमशेदपुर, जुगसलाई, बाटा चौक सहित हल्दी पोखर में जुल्म ने खुला नृत्य किया। आंध्र प्रदेश के दुव्वा गांव की स्थिति भी ऐसी ही रही। जबकि बंगाल के आतंकी घटना क्रम ने तो वहां के शासन-प्रशासन की मंशा तक उजागर कर दी। हावडा, इस्लामपुर, शिवपुर जैसे इलाकों में होने वाले खूनी घटना क्रम से वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले से ही वाकिफ थीं। उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी कि राम नवमी पर रैली करेंगे तो हिंसा होगी। यानी कि हिंसक षडयंत्रकारियों, उनकी योजनाओं और तैयारियों को अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री का समर्थन, सहयोग और सहायता प्राप्त थी। इसके बाबजूद न तो षडयंत्रकारियों की पूर्व में धर-पकड की गई और न ही उनके मंसूबों को नस्तनाबूत करने की सरकारी कोशिशें ही हुईं। आश्चर्य तो तब हुआ जब ममता बनर्जी ने अपनी राजनैतिक चालों से रमजान का हवाला देते हुए एक वर्ग को आतंक जैसी पैदा की गई स्थिति से क्लीन चिट दे दी। राजनैतिक लाभ, सत्ता-सुख की चाहत और व्यक्तिगत लालच की मृग मारीचिका के पीछे भागने वाले राजनैतिक दलों ने आम आवाम को अपनी कुटिल चालों के बीच पिसने के लिए मजबूर कर दिया है। रोकना होगा कट्टरता की विसात पर राजनैतिक पांसों का खेल अन्यथा सत्ता-सुख की चाहत में खद्दरधारियों की जमात हरे-भगवां झंडों के बीच तिरंगे को अस्तित्वहीन कर देगी और तब हम पडोसी पाकिस्तान, श्रीलंका, बंगला देश से भी गई गुजरी स्थिति में पहुंच जायेंगे जिसमें निश्चय ही देश के भितरघातियों की अहम भूमिका होगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।