देश को लेना होगी एक रंग में रंगने की शपथ
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
होली के सतरंगी वातावरण में भी देश के अनेक परिवार साम्प्रदायिकता की कालिमा के तले आंसू बहा रहे हैं। कश्मीर में आंखों के सामने हुए क्रूर घटना क्रम के मध्य जान बचाकर भागे लोग आज भी शरणार्थी कैम्पों में लहू के रंग में रंगे छुपे बैठे हैं। बदायूं जैसे आज के हालात भी देश में कट्टरता की बेलगाम होती स्थिति को ही रेखांकित करते हैं। जिस देश में सडक पर नमाज की आड में शक्ति प्रदर्शन करने वालों को संवैधानिक नियम सिखाने के विरोध में धनबल, जनबल और बाहुबल एक साथ हमला बोल देता हो वहां पर मासूमों की निर्मम हत्या पर किसी के मुंह से एक शब्द भी नहीं फूट रहा है। उल्टे पुलिस कार्यवाही पर ही अनेक प्रश्नचिन्ह अंकित किये जा रहे हैं ताकि गिरफ्तार किये गये आरोपी को कडी पूछतांछ से बचाया जा सके। आम आदमी पर आरोप लगते ही उसे थर्ड डिग्री से गुजार कर सच्चाई उगलवायी जाती है परन्तु इस मामले में आरोपी के संरक्षणदाताओं ने पहले से ही सारी रणनीति तैयार कर रखी है। बीमारी, ऊपरी हवा, मानसिक असंतुलन, तनाव जैसे शब्दों से आरोपी को बचाने हेतु राष्ट्रघाती लोगों की फौज खडी है। अनेक सफेदपोशों के इशारे पर काले कोटधारियों की फौज कानून के लचीलेपन का फायदा उठाने के लिए कसरत करने लगी है। बदायूं में पुलिस को मासूमों की हत्या के आरोपी से वास्तविकता जानने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है जबकि आम नागरिक पर लगने वाले आरोप की हकीकत जानने के लिए रात का समय, आबादी से बाहर का थाना और शारीरिक उत्पीडन का चरम ही सामने आता रहा है। देश में शक्ति प्रदर्शन करने का फैशन चल निकला है। कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ढाल बनाया जाता है तो कभी धार्मिक आजादी के नगमे गाये जाते हैं। कभी आराध्य की तौहीनी का बहाना बनाकर कत्लेआम किया जाता है तो कभी शौक के साथ-साथ पूरे समाज को जलील करने के लिए खुलेआम अबलाओं की आबरू लूटी जाती है। निरीह आवाम का मुखौटा ओढकर आतंकवादी अब अराजकता फैलाने के लिए भीड की शक्ल में खुलेआम सडकों पर गुण्डागिरी करने लगे हैं। सरकारी सम्पत्तियों से लेकर निजी सामग्री तक जलाई, तोडी और लूटी जा रही है। यह राष्ट्रविरोधी घटनायें कुछ दिनों तक मीडिया में सुर्खियां बनकर छायी रहतीं है, परिणामविहीन बहस होती है, लोगों में उत्तेजना फैलाने वाले वक्तव्य आते हैं और फिर समय के साथ सब कुछ शान्त हो जाता है। इन घटनाओं से जो प्रभावित होते हैं, केवल वही जिन्दगी भर आंखों के गर्म पानी से स्वयं का मुह धोते रहते हैं। संवेदनाओं पर व्यवसायिकता हावी होती जा रही है। दु:खद घटनाओं पर राजनीति करने वाले भी पार्टी हित के लिए कैमरे के सामने भावुकता भरा अभिनय, दर्द भरे संवाद और पूर्व लिखित कथानक को चित्रित करके किसी और घटना की प्रतीक्षा करने लगते हैं। विश्व परिदृश्य को देखें तो मास्को में स्थित क्रोकस कान्सर्ट हाल की घटना मानवता के मुंह पर तमाचा है। निरीह लोगों की हत्या करने वाले कट्टरपंथियों के आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट आफ ईरान एण्ड सीरिया यानी आईएसआईएस ने बेखौफ होकर इस हत्याकाण्ड की जिम्मेवारी ही नहीं ली बल्कि ईसाइयों की निर्मम हत्या का ठहाका भी लगाया। वर्तमान में अल्लाह का इस्लाम हाशिये के बाहर हो चुका है। अब तो केवल और केवल मुल्ला का इस्लाम आतंक की शक्ल में दुनिया पर राज्य करने का सपना देख रहा है। गैर मुस्लिम समुदायों पर जुल्म करने की इबारत पढाने वाले मदरसे अब गली-गली मुहल्ले-मुहल्ले खुलते जा रहे हैं। गाजा के दयनीय हालातों के बाद भी वहां के वासिन्दे हमास के साथ खडे हैं। इजराइल में बेकसूरों को मौत, प्रताडना और अपहरण का दण्ड देने वाले आतंकियों के संगठन हमास की करतूत का जब जबाब मिलना शुरू हुआ तो मानवता की दुहाई का राग अलापने वाले अनगिनत ठेकेदार गला फाडकर चीखने लगे मगर फिर भी गाजावासियों ने हमास के आतंकियों को पकडकर इजराइल के हवाले नहीं किया। खुद मर रहे हैं, औलादों को मरता हुआ देख रहे हैं और देख रहे है किस्तों में कत्ल होते अपने के चेहरे मगर हमास के साथ खडे हैं। ऐसे में इजराइल के प्रतिशोध को विश्व सम्मान से सम्मानित होना ही चाहिए। आतंक की चपेट में आ चुकी दुनिया में कुछ देश ऐसे भी हैं जहां की धरती पर आतंक की घटनायें अभी तक देखने-सुनने को नहीं मिलीं। चीन जैसे देशों में कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। एक देश-एक कानून, निजिता की मान्यतायें प्रदर्शन से दूर बंद कमरों तक ही सीमित और राष्ट्र के विरुध्द जाने वालों को तत्काल मौत का फरमान जैसे विधान ही वास्तविकता में शान्ति के परिचायक हो सकते हैं। सहयोग, सम्मान और सहकार जैसे शब्द अब पुस्तकों में ही सीमित होकर रह गये है। संसार के हालातों से कहीं ज्यादा बदतर होते जा रहे हैं देश के हालत। दलगत राजनीति का मकडजाल अब राष्ट्रवादी न होकर दलवादी तथा व्यक्तिवादी हो चुका है। जनप्रतिनिधि का तमगा लेने वाले पहले से ही स्वार्थ की गणित में शतप्रतिशत अंक लेकर मैदान में उतरते हैं। रंगों के त्यौहार में बेरंग हो चुकी जिन्दगी जीने वालों की संख्या में यदि बढोत्तरी नहीं करना है तो देशवासियों को कठोर निर्णयों की आग जलानी होगी, समानता का शंखनाद करना होगा और देना होगी मानवता की स्थापना हेतु अग्नि परीक्षा। जब देश एक है, देशवासी समान हैं, तो फिर कानून अलग-अलग क्यों? शिक्षा अलग-अलग क्यों? देश की सम्पत्ति पर अलग-अलग हक क्यों? नौकरियों में अलग-अलग दावे क्यों? इस तरह के प्रश्नों की अन्तहीन श्रंखला है जिसका उत्तर खोजे बिना देश में शान्ति नहीं आ सकती। अनेक देशों में आन्तरिक शान्ति का कारण वहां का समान संविधान, समान नीतियां और समान व्यवहार है। आस्था के अर्थों को एकान्त स्थान तक ही सीमित होना चाहिए। आस्था, श्रध्दा और उपासना पध्दति से लेकर जीवन जीने की कला तक सभी नितांत वैक्तिक पक्ष है। इनका प्रदर्शन करके जनबल, बाहुबल और धनबल का परचम फहराना किसी भी देश में हितकर नहीं रहा है। स्वाधीनता के बाद से ही भारत में समान शिक्षा, समान नागरिक संहिता, समान अवसर, समान राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन जैसी बाध्यता लागू करना चाहिए था। विभाजन की शर्तों के आधार पर घुसपैठियों के लिए कडे कानून बनाया जाना चाहिए था। देश की जनसंख्या के विस्तार को नियंत्रित करने हेतु समान व्यवस्था लागू की जाना चाहिए थी। धर्मान्तरण कराने वालों तथा उनके सहयोगियों की सम्पत्ति जप्त करके उन्हें कडी सजा देना के नियम बनाने चाहिए थे। साम्प्रदायिक शिक्षा को निजिता के अन्तर्गत घरों की चहरदीवारी तक सीमित होना चाहिए था परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इसके विपरीत सारी व्यवस्थायें लागू की गईं। वर्तमान समय में देश को लेना होगी एक रंग में रंगने की शपथ तभी रोज-रोज की हत्याओं से मिल सकेगी निजात अन्यथा कल फिर किसी और बदायूं में जालिम के छुरे के नीचे किसी बेकसूर का सिर होगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।