महापर्व पर पुनस्र्थापित करें वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
समस्याओं के झंझावात में समाधान का अभीष्ट सामने खडा होता है। शारीरिक प्रयासों, मानसिक क्षमताओं और संबंधों की शक्ति जब निराकरण का परिणाम प्रदान करने में असफल हो जाती है तब आस्था की दिशा में परमात्म पथ ही एक मात्र विकल्प बचता है। थक-हारकर इसे ही अंगीकार करने की विवसता होती है। किंकर्तव्यविभूण होकर हताशा में आशा तलाशने का यह अंतिम उपाय शाश्वत सत्य की ओर ढकेलता है। यहीं से प्रारम्भ होता है श्रध्दा, विश्वास और समर्पण का त्रिसूत्रीय क्रम। इस क्रम में देश, काल और परिस्थितियां महात्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करतीं है। देश को स्थान विशेष के संदर्भ में लिया जाना चाहिए जहां वातावरणीय और संगत की संयुक्त आभा सीधा प्रभाव डालती है। काल को समय के ऊर्जामय सिध्दान्त पर विश्लेषित करना पडता है। परिस्थितियों को दैहिक, दैविक और भौतिक तलों पर समीक्षा के उपरान्त ही समझा जा सकता है। वर्तमान में शक्ति साधना का विशेष काल चल रहा है। इस समय ब्रह्माण्डीय ऊर्जा स्रोतों का सीधा प्रवाह पृथ्वी के चारों ओर एक वलय के रूप घूम रहा है। इसका विस्तार ऋषियों ने पुरातन नक्षत्र शास्त्र में किया है। आधुनिक युग में इस लुप्तप्राय नक्षत्र शास्त्र के कुछ भाग को जिज्ञासुओं ने खोजा और उसे आधुनिक खगोल विज्ञान की विषय वस्तु बनकर शोध की पृष्ठभूमि तैयार की। ग्रहों को ही स्थूल रूप में नक्षत्र का पर्यायवाची माना जाता है जबकि ज्योतिष शास्त्र में ग्रह और नक्षत्रों को अतिसूक्ष्म स्थिति तक विश्लेषित किया गया है। ग्रहों की पृथ्वी से दूरी, उनका पृथ्वी पर प्रभाव, प्रभाव की सीमा में आने वाले कारक, कारकों पर प्रभाव से होने वाले परिणाम जैसे अनेक तथ्यों के प्रकाश में वैदिक विव्दान आज भी न केवल अतीत की घटनाओं को उजागर करते हैं बल्कि सटीक भविष्यवाणियां भी करने में पूरी तरह समर्थ हैं। आक्रान्ताओं की गुलामी ने सनातन की परम्पराओं, पध्दतियों और ज्ञान को हाशिये के बाहर कर दिया। वर्तमान में इस वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करने वालों को उपहास का केन्द्र बनाने वालों की कमी नहीं है। स्वाधीनता के बाद भी आक्रान्ताओं के सदृश्य बनने की ललक ने ऋषियों के अनुसंधानों से प्राप्त परा-विज्ञान को दरियानकूसी बताकर अस्तित्वहीन करने के प्रयास तेज कर दिये हैं, परन्तु समस्याओं के समाधान पर चारों ओर से निराशा हाथ लगने के बाद सभी को शाश्वत से जुडे सिध्दान्तों का अनुपालन करने के लिये विवश होना ही पडता है। कर्म फल की अवधारणा, कृत्यों का परमार्जन और चिन्तन का आचरण हमेशा ही फलीफूत होता रहा है। ऐसे में शक्ति साधना के विशेष काल का उपयोग सकारात्मक दिशा में करने हेतु सक्रिय होना नितांत आवश्यक होता है। ऊर्जा के प्रवाह को अंगीकार करने की अनेक विधियां हैं जिन्हें समय-समय पर महापुरुषों ने निरूपित किया है। प्रत्येक विधि में ब्रह्माण्डीय शक्ति के अंश को ज्योति के रूप में स्वीकार किया गया है। कहीं दीपक जलाकर उपासना की जाती है तो कहीं चिरागी जलाकर इबादत पेश होती है। कहीं कैन्डिल जलाकर प्रेयर की जाती है कहीं रोशनी जलाकर जुमले पढे जाते हैं। सभी महापुरुषों ने स्वयं के प्रयासों से प्राप्त अनुभूति स्वरूप परिणामों को जनकल्याणार्थ प्रस्तुत किया है। यह अलग बात है कि बदलते परिवेश के साथ सत्य पर बनवटी भौतिकवाद की धूल जमती चली गई, अन्त: में छुपे आनन्द को लोगों ने क्षणिक सुख पर निछावर कर दिया, भाईचारे पर व्यक्तिगत स्वार्थ ने कुठाराघात किया और जनकल्याण की मानसिकता पर निजी लालच के प्रहार होने लगे। परिणामस्वरूप संतुष्टि की मृग मारीचिका के पीछे भागते लोगों ने दूसरों पर शासन करके सत्तासुख को ही सर्वोपरि मान लिया है, शारीरिक सुख को ही पूर्ण तृप्ति के रूप में परिभाषित करना शुरू कर दिया है, विलासता के संसाधनों को वैभव की थाथी मानना जाने लगा। ऐसे में शान्ति की चाह में अशान्त होता समाज जहां देशों की शत्रुता को जन्म दे रहा है वहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी दूसरों को दास बनाने की मानसिकता बलवती होकर कटुता पैदा कर रही है। वर्तमान में महापुरुषों की वाणी को स्वयं की परिभाषाओं में ढालकर प्रस्तुत करने का क्रम चल निकला है। हमें समझना होगा कि सत्य का सनातन है या पीठाधीश्वरों का सनातन, अल्लाह का कुरान है या मुल्ला की कुरान, गुरु की गुरवाणी है या ग्रन्थी की गुरुवाणी, ईसु की बाइविल है या पादरी की बाइविल। महापुरुष ने तो सत्य के संदर्भ में एक ही बात कही होगी जिसे समझाने के लिए उन्होंने शब्दों के अलावा अपने भाव-भंगिमा, संकेतों तथा ऊर्जा प्रवाह का सहारा लिया होगा। हमें महापुरुषों की वाणी समझने से पहले उनके तल पर पहुंचा होगा कि उनकी परिस्थितियों, समय और स्थान का प्रभाव आंकना होगा। तभी उनके संदेशों को ठीक-ठीक सुना जा सकेगा। सत्य को परिभाषित करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। यह व्यक्तिगत अनुभूति का विषय है, गूंंगे का गुड है। जिसने पाया, उसी ने जाना। इस दिशा में वही चला सकता है जिसने स्वयं लक्ष्य भेदन कर लिया हो। ऐसे महापुरुष के सानिध्य में उनके अनुशासन तले बैठकर स्वयं को सत्य के मार्ग पर अग्रसर करना चाहिए। महापुरुष का संरक्षण नितांत आवश्यक है अन्यथा भटकाव होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। स्वयं लक्ष्य भेदन करने वाला महापुरुष ही दूसरे को लक्ष्य भेदन करने के सूत्र बता सकता है, उन पर चला सकता है, त्रुटि होने पर सुधार सकता है और अन्त में सुखद परिणाम की परिणति के साथ सत्य से जोड सकता है। नवरात्रि के इस महापर्व पर नौ दिवसीय रात्रिकालीन साधनायें जहां आत्म चिन्तन, आत्म अवलोकन और आत्म विस्तार की दिशा में सामर्थ प्रदान करतीं हैं वहीं ब्रह्माण्डी ऊर्जा के वलय से आत्मसात कराने में भी समर्थ हैं। तो आइये अपनी-अपनी रीतियों को परमार्जित करके उन पर चलें और शाश्वत सत्य की अनुभूतियों तले पुनस्र्थापित करें वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।