राष्ट्रीय आदर्शों से हटाना होगा स्थाई ग्रहण
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश में आगामी लोकसभा चुनाव के नित नये बदलते परिदृश्यों के साथ मौसम भी कदम ताल करने लगा है। गर्मी, सर्दी और बरसात में भी वर्चस्व की जंग छिड गयी है। कभी तेज धूप की दम पर गर्मी फैलने लगती है तो कभी वर्फवारी-ओलावृष्टि की ताकत से सर्दी का प्रकोप बढने लगता है। गरज के साथ मूसलाधार वारिस के साथ बरसात भी अपने प्रभाव को दिखा रही है। मौसम के सतरंगी आनन्द की बेला में भाजपा ने अपने प्रत्याशियों की पहली सूची जारी कर दी है। अनेक दिग्गजों का नाम सूची में शामिल न करके उन्हें अपनी कार्यशैली, प्रतिबध्दता और अनुशासन की दिशा में सोचने हेतु स्पष्ट संकेत दे दिये हंै। यूं तो समाजवादी पार्टी सहित अनेक दलों ने अपने प्रत्याशियों के नामों की पहली किस्त जारी कर दी है परन्तु अभी भी प्रतीक्षा, मूल्यांकन और क्रिया की नीतियों पर ही ज्यादातर दल चल रहे हैं। देश के विकास, विदेश में प्रभाव और गुलामी से निजात के प्रयासों का त्रि-चरणीय प्रचार लेकर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने कार्यों, उपलब्धियों एवं योजनाओं के साथ-साथ नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत छवि को आगे किये हुए है। देश की आदिकालीन सनातन संस्कृति को पोषित करने का दावा करने वाली वर्तमान सरकार के पास अपने कार्यकाल को राष्ट्रहित में प्रमाणित करने के लिए बहुत कुछ है जबकि विपक्ष आरोपों की अनेक कहानियों, भयावह भविष्य की कल्पनाओं तथा नाटकीय भूमिका के साथ मतदाताओं के मध्य पहुंच रहा है। राज्यसभा के चुनावों के दौरान भी भाजपा ने अपनी रणनीति के आधार पर अपेक्षा से अधिक सीटें जीत कर विरोधियों के माथे की रेखायें गहरी कर दी हैं। इस चिन्ता मुक्ति के चिन्तन गायन में सामूहिक संगठन के अनेक घटक अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। कांग्रेस ने अनेक स्थानों पर काफी नीचे आकर क्षेत्रीय दलों के साथ समझौते करने शुरू कर दिये हैं। वहीं दूसरी ओर हल्व्दानी से लेकर संदेशखाली तक के मामले गर्माते जा रहे हैं। बैगलुरु के रामेश्वर कैफे से लेकर केरल के आतंकी अड्डों तक की चर्चायें तेज हो रहीं हैं। गजवा-ए-हिन्द से लेकर हिन्दू राष्ट्र तक के मंसूबे उभरकर सामने आ रहे हैं। अतिक्रमण करके बनाये गये आलीशान महलों को जायज ठहराने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। रेड माइनर के दौरान ख्याति बटोरने वाले वकील हसन अपने अतिक्रमण को हटाने पर अपने मानवतावादी कृत्य को लेकर सौदेबाजी पर उतर आये। सन् 2016 में भी उनका अतिक्रमण हटाया गया था परन्तु तब वे खामोश रहे किन्तु रेड माइनर में सहयोग करने के एवज में वे स्वंय को कानून से ऊपर मानने लगे हैं। कुछ खास लोगों का रोजगार ही अतिक्रमण की धरती से शुरू होता है। सरकारी जमीनों पर तराजू लगाकर बैठने वाले धीरे-धीरे दुकान-मकान बनाकर उसे अपनी बपौती मान बैठते हैं। इन सबसे बेखबर बने बैठे उत्तरदायी लोग किन्हीं खास कारणों से उनके संरक्षक की भूमिका का निर्वहन करते हैं। यही हाल देश की दलगत राजनीति का है जो अपने वोटबैंक की खातिर संविधान को तिलांजलि देने से भी नहीं कतराती। राष्ट्रीय आदर्शों अब स्थाई ग्रहण लग चुका है जिसे हटाये बिना संतुलित विकास की आभा का प्रकाश आना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। दल-बदल सहित अनेक विकृतियों को अब एक विशेष आदर्श के रूप में देखा जाने लगा है। राजनीति में पुराने कार्यकर्ता की कीमत पर विपरीत सिध्दान्तवादियों को आमंत्रित करने का क्रम चल निकला है। जोड-तोड की जुगाड वाली गोरी नीतियां देश में खूब फलफूल रहीं हैं। लोकसभा चुनावों में जीत का परचम फहराने के लिए सभी दल एआई से लेकर चुनावी सलाहकारों तक की सशुल्क सेवायें ले रहे हैं। उधार के सिन्दूर से मांग भरने वाले स्वयं को स्थाई सुहागिन मानने लगे हैं। दलबदलुओं की भितरघाती नीतियां यदि पुराने परिवार में घातक सिध्द हुईं है तो फिर नये घर में विश्वसनीयता की कसौटी पर कैसे खरी उतरेंगी, यह एक यक्ष प्रश्न है जिसे हल किये बिना पानी पीने से पाण्डवों के चार भाइयों सरीखे हाल होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। कथनी, करनी और नियत के विश्लेषण हेतु व्यवहार का अतीत कुरेदना आवश्यक ही नहीं बल्कि अति आवश्यक होता जा रहा है। यही कारण है कि अनेक चुनावी दंगलों में प्रत्याशियों की हार का कारण उनकी व्यक्तिगत नकारात्मक छवि ही होती है जिसका फायदा जीतने वाले को बिना प्रयास के स्वत: ही मिल जाता है। अतीत गवाह है कि इन्दिरा गांधी की रायबरेली से हार का कारण उनकी अपनी नीतियों के घातक परिणाम के रूप में ही सामने आया था। थोपे गये प्रत्याशियों को प्रत्येक क्षेत्र के मतदाता आंख बंद करके केवल पार्टी के नाम पर स्वीकार लेंगे, यह सत्य नहीं है। संसद के वर्तमान कार्यकाल में भी अनेक थोपे गये प्रत्याशियों को उनके क्षेत्र में पार्टी की नीतियों के कारण स्वीकारोक्ति मिली थी परन्तु बाद में जीते हुए सांसदों के बंगलों, कार्यालयों और सलाहकार मण्डलों में उनके गृह क्षेत्र वालों का खुला दबदबा रहा। निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान ही हाथ लगा था। वर्तमान में भी अनेक स्थानों पर थोपे गये प्रत्याशियों की पुनरावृत्ति करना किसी भी पार्टियों के लिए घातक हो सकता है। अति विश्वास में भरी भारतीय जनता पार्टी तो धारा 370 की समाप्ति, राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा, ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में पूजा, अभिनन्दन की वापिसी, सीमा-विवाद में कूटनैतिक जीत, यूक्रेन से भारतीयों की सुरक्षित वापिसी, विदेश नीति के आधार पर दुनिया की पहली पंक्ति में स्थान जैसे कारकों के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत छवि के साथ अपनी जीत के प्रति आशावान है परन्तु टिकिट वितरण में धरातली वास्तविकता को नजरंदाज करना भी उसके लिए उचित नहीं होगा। जातियों के आधार पर मतों का विभाजन मान लेना भी, भ्रम को पालने जैसा ही होता है।
क्षेत्रीय दलों के स्वयंभू मुखियाओं की श्रंखला अब अपनी जाति के वोटबैंक की दम पर सौदेबाजी करने पर आमादा हैं। कहीं आंदोलन का दबाव तो कहीं संगठन का प्रभाव आजमाया जा रहा है। कहीं चौधराहट की धमस तो कहीं पैसों की चमक दिखाई जा रही है। कहीं अतीत की दुहाई तो कहीं वर्तमान की तराई को रेखांकित किया जा रहा है। ऐसे में राजनैतिक दलों के सामने एक ओर अपने पुराने निष्ठावान कार्यकर्ता टिकिट की लाइन में खडे हैं तो दूसरी ओर दलबदलुओं की सूची रखी है। ऐसे में सिध्दान्त, आदर्श और नीतियां किस्तों में कत्ल हो रहीं हैं। अधिकांश मतदाताओं का मस्तिष्क व्यक्तिगत लाभ के अवसरों की तलाश में जुटा है किन्तु राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य के लिए मतदान वाले अभी से ही ऊंट की करवट का अंदाजा लगाने लगे हैं। कारण चाहे जो भी रहे हों परन्तु वर्तमान में तो राष्ट्रीय आदर्शों से हटाना होगा स्थाई ग्रहण तभी विकास की भागीरथी निर्विघ्न रूप से अपनी कल्याणकारी यात्रा पर बढ सकेगी। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
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