हरिद्वार और भारत के कई अन्य नगरों के लिए प्रेरणास्रोत है मालदीव-

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मालदीव से डॉ० हरीनारायण जोशी अंजान की कलम

मालदीव एक छोटा सा देश, प्यारा सा देश, शांत देश, आत्मनिर्भर और लगभग विकसित देश है। विशेष बात यह कि यहां प्रकृति ने बहुत कुछ नहीं दिया है। बस एक समुद्र है जिसको अपना बनाकर यहां के लोगों ने, सरकार ने और व्यवस्थाओं ने उसे अपनी संपूर्ण पूंजी और समृद्धि का साधन बना लिया है। यहां ना तो खेती-बाड़ी है, ना उद्योग हैं, ना फैक्ट्रीज हैं, ना कंपनियां हैं, ना पशुपालन ही है जिससे रोजगार व्यापार चलाना अन्य देशों के लिए बहुत आसान हो जाता है परंतु उन्होंने बहुत होशियारी और समझदारी से काम लिया। वे इस तरह के किसी झंझट में ही नहीं पड़े और उन्होंने उसे दुनिया भर के पर्यटन का एक मुख्य आकर्षण बना दिया अपना मालदीव। उन्होंने अपनी मेहनत और संकल्प से बड़े-बड़े कृत्रिम आईलैंड तक बना डाले। आमतौर पर यहां सभी कुछ आयात होता है। जबकि हमारा देश भारत प्राकृतिक संसाधनों से अकूत भरा हुआ है।
हमारा नगर हरिद्वार तो प्रकृति का वरदान ही है। पहाड़ और मैदान का एक अद्भुत संगम स्थल। ऊपर से गंगा जी की अमृत धाराओं से अभिसिंचित धरती। निश्चित यह गंगा जी भी अन्ततः समुद्र का ही हिस्सा बन जाती हैं किंतु उससे पहले अपने तटों पर उद्योग का एक बड़ा बाजार बना देती हैं और स्वयं आध्यात्म की संवाहिका और धर्म की प्रेरणता तो हैं ही।

समुद्र गंगा से अतुलनीय विशाल है। किंतु उसके तटों पर कुंभ नहीं लगता। उसके जल से स्नान करने से सर्व पापों का निवारण नहीं होता। उसके दो बूंद जल मृतक के मुख में डालने से स्वर्ग प्राप्ति की कल्पना नहीं की जाती। उसके तटों पर ना आरतियां होती हैं, ना उसका जल डिब्बों में भरकर दुनिया के घरों में पवित्रता के लिए रखा जाता है। बस यह महिमा तो गंगा जी की ही है और यह अधिकार उसी को प्राप्त है। लेकिन हरिद्वार का आध्यात्मिक धार्मिक पर्यावरणीय और पर्यटकीय विकास मालदीव की भांति नहीं हुआ। जो बाग बगीचे भी थे वहां पर भी कंक्रीट के महल खड़े हो गए है। नगर धूलधूसरित, गंदगी और अतिक्रमण से पटा रहता है। ऊपर से ध्वनि प्रदूषण वातावरण को और कलुषित कर देता है ।
हरिद्वार के मेयर, प्रशासक, विधायक, मेला अधिकारी और अन्य प्रशासन तंत्र को एक बार मालदीव नहीं तो कम से कम अपने ही देश चंडीगढ़ जरूर देख कर घूम कर आना चाहिए कि किस तरह से इतने संसाधनों से भरपूर होते हुए हरिद्वार जैसे नगर को विकसित किया जा सकता है। लाउडस्पीकर की होड़ को छोड़कर किस प्रकार से आध्यात्मिक चिंतन के योग्य बनाया जा सकता है। उसके तटों पर हमारी आरतियां भी किसी फिल्मी कैसेट लगा कर के ही होती है। सस्वर पाठ करने की हमने परंपरा ही नहीं बनाई । संपूर्ण आध्यात्मिक उन्नयन यंत्रबद्ध नहीं हो सकता। ढोल डमरु भी विद्युत चालित ही चला देते हैं। अब तो यह परंपरा ही बन चुकी है। हरिद्वार जैसा संसाधनों से भरा नगर बहुत ही समृद्धशाली और विकसित हो सकता है। यह नगर तो धर्म-अध्यात्म उद्योग और पर्यटन की त्रिवेणी है। ऐसे ही भारत के अन्य भी नगर हैं जो विकास में बहुत आगे निकल सकते हैं। जै हिन्द।

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