स्व अनिल बिस्वास- एक अनाम संगीतकार जिसका नाम नहीं संगीत अमर है”
स्व. अनिल बिस्वास अपनी पत्नी के साथ घर में मजे से कुछ पका रहे हैं और स्व लता मंगेशकर बगल में बैठे हुए ध्यान से देख रही हैं, कोयले की सिगड़ी जल रही है, डालडे का डिब्बा रखा हुआ है
अनिल बिस्वास का लता, तलत महमूद और दिलीप कुमार से पारिवारिक संबंध था।
ये संगीतकार होने के साथ मजबूत कद काठी के अत्यंत ताकतवर और पहलवान किस्म के आदमी थे।
कलकत्ता से मुंबई आए अनिल दा का सफर फिल्म जगत में सिर्फ 26 साल रहा। 1961 में बीस दिनों में छोटे भाई सुनील और बड़े बेटे के निधन ने अनिल दा को भीतर से तोड़ दिया।
वे मुंबई से दिल्ली चले गए और मृत्युपर्यंत साउथ एक्सटेंशन में रहे। यहाँ रहते हुए भी उन्होंने आकाशवाणी को अपनी सेवाएँ दीं और “हम होंगे कामयाब एक दिन” जैसा गीत युवा पीढ़ी को दिया। इस गीत की शब्द रचना में उन्होंने कवि गिरिजा कुमार माथुर से सहयोग किया था।
अनिल बिस्वास की पत्र-पत्रिका और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा 1994 में हुई, जब म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग ने उन्हें लता मंगेशकर अलंकरण से सम्मानित किया। लता मंगेशकर अपने गायन के आरंभिक चरण में गायिका नूरजहाँ से प्रभावित थीं। अनिल दा ने लता को इस ‘प्रेत बाधा’ से मुक्ति दिलाकर शुद्ध-सात्विक लता मंगेशकर बनाया। अनिल दा के संगीत में लताजी के कुछ उम्दा गीतों की बानगी देखिए- मन में किसी की प्रीत बसा ले (आराम), बदली तेरी नजर तो नजारे बदल गए (बड़ी बहू), रूठ के तुम तो चल दिए (जलती निशानी)।
स्वयं लताजी ने इस बात को स्वीकार किया है कि अनिल दा ने उन्हें समझाया कि गाते समय आवाज में परिवर्तन लाए बगैर श्वास कैसे लेना चाहिए। यह आवाज तथा श्वास प्रक्रिया की योग कला है। अनिल दा उन्हें लतिके कहकर पुकारते थे। इसी तरह मुकेश को सहगल की आवाज के प्रभाव से मुक्त कराकर उसे मुकेशियाना शैली प्रदान करने में अनिल दा का हाथ है।
तलत महमूद की मखमली आवाज पर अनिल दा फिदा थे। तलत की आवाज के कम्पन और मिठास को अनिल दा ने रेशम-सी आवाज कहा था। किशोर कुमार से फिल्म ‘फरेब’ (1953) में अनिल दा ने संजीदा गाना क्या गवाया, आगे चलकर इस शरारती तथा नटखट गायक के संजीदा गाने देव आनंद-राजेश खन्ना के प्लस-पाइंट हो गए।
संगीतकार नौशाद ने कहा था “अनिल बिस्वास एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार हैं, जो पंजाबी फिल्म में पंजाबी, गुजराती फिल्म में गुजराती, मुगल फिल्म में मुगलिया संगीत देने में माहिर हैं। वे कीर्तन, जत्रा और रवीन्द्र संगीत के अलावा भी हिन्दुस्तानी संगीत को बखूबी जानते हैं ”
अनिल विश्वास का जन्म बरीसाल (पूर्वी बंगाल) में 7 जुलाई 1914 को हुआ था। चार साल की उम्र से वे गाने लगे थे। किशोर उम्र में देशभक्ति जागी और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। जेल गए और यातनाएँ सही। 16 साल की उम्र में नवंबर 1930 में कलकत्ता में महान बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष के घर शरण ली। अनिल दा की बहन पारुल घोष ने पन्नालालजी से विवाह रचाया था। युवा अनिल ने यहाँ ट्यूशनें की। काजी नजरूल इस्लाम के कहने पर मेगा फोन रिकॉर्ड कंपनी में काम किया। उनका पहला रिकॉर्ड उर्दू में जारी हुआ था। यहीं पर उनकी मुलाकात कुंदनलाल सहगल और सचिन देव बर्मन से हुई थी। हीरेन बोस के साथ मुंबई आए और 26 साल संगीत सृजन किया। अभिनेत्री मीना कपूर से उन्होंने शादी की थी।
अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन की पहली फिल्म ‘धर्म की देवी’ (1935) थी और अंतिम ‘छोटी-छोटी बातें'(1965)।
इसे अभिनेता मोतीलाल ने बनाया था। अनिल विश्वास संगीत को स्वतंत्र पहचान देने वाले प्रथम संगीतकार हैं।
“आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है/ दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है’ भारत की आजादी के 4 साल पहले देशभक्ति का यह तराना गली-गली गूँजा था। बच्चे-बच्चे की जबान पर था। फिल्म किस्मत (1943) के इस गीत को बड़नगर (म.प्र.) के गीतकार कवि प्रदीप ने लिखा था और पूर्वी बंगाल के संगीतकार अनिल बिस्वास ने जोशीले संगीत से सँवारा था। इस गीत को सुनकर देशभक्तों की रगों में खून की रफ्तार तेज हो जाती थी।
उनका संगीत कालजयी है
एक और महत्वपूर्ण तत्व जो उन्होंने पेश किया, वह था पश्चिमी ऑर्केस्ट्रेशन, गीतों में और साथ ही उनके मधुर अंतराल में स्वदेशी वाद्ययंत्रों का उपयोग करना, एक प्रवृत्ति जिसने जल्द ही पकड़ लिया और आज के भारतीय सिनेमा के संगीत के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
अब वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी संगीत धरोहर संगीतप्रेमियों के लिए प्रकाश स्तंभ के समान है।
साभार (फिल्मी दुनिया)