जनतंत्र पर हावी होता बलतंत्र

0

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

चुनाव परिणामों ने देश की दशा और दिशा का स्पष्ट मूल्यांकन प्रस्तुत कर दिया है। जीत-हार की बाजी के मध्य राजनैतिक दलों ने अपने लुभावने घोषणा पत्रों के माध्यम से अपनी नीतियों और रीतियों का खुलासा किया था। अतीत की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटा था। सत्य और असत्य के उतार-चढाव के हिंडोले पर चढकर चुनावी मंचों से वक्तव्यों का तूफान खडा किया था। जातियों से ऊपर उठकर सम्प्रदायवाद की हवा तेज की थी। महिलाओं और पुरुषों मे बीच पनप रही खाई को ज्यादा गहरा करने की गरज से महिलाओं के लिए मुफ्तखोरी की योजनायें आकार लेती रहीं और बाजी पर बाजी लगती रहीं। सिध्दान्तों पर कायम रहने वाले तथा बनावटी मुखौटे का विभेद सामने आता रहा। ऐसे में नागरिकों की सोच को राष्ट्रीय हित में निरूपित करने का दावा करने वाले अनेक नेताओं ने अपने उद्बोधनों से सामाजिक ढांचे में दरार पैदा करने की कोशिशें भी है। यह सत्य है कि विगत एक दशक में अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर देश की छवि में गुणोत्तर विकास हुआ है, आन्तरिक संरचना में आधुनिकीकरण का भान हुआ है और हुआ है जीवनस्तर में सुविधात्मक विकास। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि सोच का दायरा, चिन्तन की दिशा और जीवन जीने की कला के आधार पर संबंधों की स्थापना ने पतन की नई गहराइयां ही मापी हैं। थोपे गये धर्म के नाम पर जीवन के बाद की कल्पनाओं की कामनायें दिखाकर श्रध्दावानों को मात्र मृगमारीचिका के पीछे ही दौडाया जाता रहा है। वर्तमान में आस्था का पर्याय बनाकर स्वयं की कथित उपलब्धियों को प्रदर्शित करने का क्रम चल निकला है। प्रयागराज में जनवरी से प्रारम्भ होने वाले महाकुम्भ को लेकर रणनीतियां, राजनीतियां और लाभनितियां बनाई जाने लगीं है। इसी मध्य सीमापार चल रही भारत विरोधी षडयंत्रकारियों की गुप्त बैठकों का दौर भी तेज होने लगा है। विध्वंसकारी घटनाओं के लिए सिलीपिंग सेल्स को एक्शन मोड में परिवर्तित किया जा रहा है। हवाला, फर्जी एकाउण्ट, बिचौलियों आदि के माध्यम से फण्ड पहुंचाया जाने लगा है। सूत्रों के अनुसार इस षडयंत्र में चीन, पाकिस्तान, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देश पर्दे के पीछे से सक्रिय हैं। वहां रहने वाले कुलषित मानसिकता वाले लोगों के गिरोह अपने खास मकसद के लिए देश को अशान्ति की आग में झौंकना चाहते हैं। यह सब यूं ही नहीं हो रहा है। प्रत्यक्ष में चुनौतियां देने वाले लोगों की जमातें आमने-सामने आकर तलवारें खींच चुकीं हैं। एक पक्ष रैलियां निकालकर, नारे लगाकर, पोस्ट चिपकाकर समाज में उत्तेजना फैला रहा है तो दूसरा पक्ष गुपचुप तरीके से विस्फोटक तैयारियों में जुटा है। गाल बाजने वालों का दिखावे पूरी तरह से खोखले साबित हो रहे हैं। जातियों को एकजुट करने वाली यात्राओं में भले ही लाखों लोगों की भीड एकत्रित हो रही हो परन्तु भीड का हिस्सा बनने वाले तो केवल स्वयं की समस्याओं के निदान पाने, स्वयं के वर्चस्व को विस्तार देने और चमत्कार की आशा से लाभ अर्जित का लक्ष्य लेकर ही आते हैं। उनसे अध्यात्म के वास्तविक पथ पर चलने की आकांक्षा नहीं करना चाहिए। अल्पसंख्यक बनकर आये बाह्य आकान्ताओं के हमलों के दौरान खामोशी से घरों में दुपके रहने वाले बहुसंख्यक लोगों की तरह ही इस भीड का एक बडा हिस्सा भी कठिन परिस्थितियों में मौन के आवरण में छुपकर शान्ति की प्रतीक्षा करेगा। यह लोग आस्था के नाम पर परोसे जाने वाले अंधविश्वास की हथकडियों में जकडे हुए है जिन्हें धर्म के स्वयंभू ठेकेदार अब बेडियां भी पहना रहे हैं ताकि चमत्कार का मायाजाल उनके स्वयं के तिलिस्म को निरंतर विस्तारित करता रहे। प्रदर्शनबल के आधार पर धनबल, धनबल के आधार पर जनबल और अब दौनों के समुच्च के आधार पर वर्चस्वबल बढाने की कबायत शुरू हो गई है। ऐसे लोगों व्दारा सत्ताबल पर काबिज होने के लिए राष्ट्र के तीन घोषित और चौथे अघोषित स्तम्भों को निजी लाभ का लालच देकर लुभाया जाने लगा है। जहां भीड होती है वहां अधिकांश नेताओं की श्रध्दा स्वत: ही उमडने लगती है। नेता के अभिनय से लेकर अभिनेता की नेतागिरी तक सामने आती जा रही है। कला, साहित्य और संगीत की साधनाओं के पथ पर सफलताओं को अंगीकार करने वाले भी अब स्वार्थी बनकर चमत्कार की आशा में आस्थावान हो चले हैं। उन्हें भी भीड लुभाने लगी है। अतीत की पुनस्र्थापना के नाम पर वर्तमान को भयावह बनाने वाले लोगों ने देश-दुनिया को अपने शिकंजे में कस लिया है। शरीर के दास बन चुके समाज में विलासता हेतु वैभव और वैभव हेतु कृत्य संपन्न हो रहे हैं। नियम, कानून, कायदे केवल मानने वाले निरीह नागरिकों तक ही सीमित होकर रह गये हैं। बल की दम पर अपने आचरण से संविधान को सरेआम जलाने वालों की संख्या में निरंतर बढोत्तरी होती जा रही है। अब आम आवाम के लिए प्रेरणादायक बनता जा रहा है जनतंत्र पर हावी होता बलतंत्र। देश के किसी न किसी कोने में आये दिन मनमानियों का दावानल अपनी उपस्थिति दिखा रहा है। कहीं मतदान को लेकर मैैनपुरी मेें समाजवादी पार्टी के सिपाहसालारों व्दारा सामूहिक बलात्कार और हत्या जैसी घटना सामने आती है तो कहीं कश्मीरी पंडितों पर जम्मू में वहीं की नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार व्दारा जुल्म ढाने की स्थिति अपनी मंशा दिखाती है। वर्तमान परिदृश्य में संविधान की किताब, अंबेडकर की मूर्तियां और धार्मिक ग्रन्थों की शपथ जैसे कारक, मात्र औपचारिक बनकर रह गये हैं। एक व्यक्ति व्दारा दूसरे व्यक्ति को दी जाने वाली धमकी तो कानून के दायरे में अपराध है परन्तु खुले मंच से 15 मिनिट और 5 मिनिट खुला छोडने पर रक्त की नदियां बहाने वालों को न केवल हर खून माफ है बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए भी सरकारी खजाने से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कष्टप्रद मौत का डर दिखाकर जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र और भाषा जैसे आधारों पर बंटने वाले केवल और केवल स्वयं के लाभ के अवसर ही तलाशते हैं ताकि उनकी आने वाली सैकडों पीढियां वैभव के सिंहासन पर बैठकर विलासता भरे जीवन को पूरा कर सकें। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share