रंगों के त्यौहार में वैमनुष्यता की कालिख पोतने की कोशिशें
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में होलिका की भूमिका का निर्वहन करते हुए सत्ताधारी पार्टियां मुफ्तखोरी को बढावा देने वाले बजट की चादर बनाकर देश के सौहार्द रूपी प्रहलाद को जलाने की चेष्टा कर रहीं हैं। कहीं सम्प्रदायों और जातियों की खाइयों को चौडा किया जा रहा है तो कहीं लिंग-विभाजन के आधार पर लुभावनी योजनाओं से अहंकार पोषण के सिध्दान्त लागू हो रहे हैं। कहीं क्षेत्रीय भाषा, बोली और संस्कृति दुहाई दी जा रही है तो कहीं विशेषाधिकार की मांग उठाने के प्रयास हो रहे हैं। यह सब उधार लेकर घी पीने की कहावत को चरितार्थ करने के प्रयास हैं, जो आने वाले समय में सामाजिक वैमनुष्यता, पारिवारिक कलह और आपसी टकराव जैसे लाइलाज रोगों का कारण बनेंगे। मुफ्तखोरी के कीटाणुओं को शहद की चासनी में पिलाने वाले सत्ताधारी दल कभी अल्पसंख्यकों को शोषित बताकर उनके उध्दार के नाम पर लोकप्रियता प्राप्त करना चाहते हैं तो कभी महिलाओं को बेचारी के संबोधन देकर उन्हें सशक्त बनाने की आड में पुरुषों के विरुध्द खडा करने में लगे हैं। कर्जधारी राज्य अपने संसाधनों को विकसित करने के स्थान पर केन्द्र के कर्जों को अपना अधिकार मानकर अपने नागरिकों को देनदारी के बोझ से निरंतर दबाते चले जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की नेशनल कान्फ्रेंस सरकार ने आगामी 2025-26 के लिए 1.12 लाख करोड रुपये खर्च करने की घोषणा की है जिसमें प्रदेश की सभी महिलाओं को 1 अप्रैल से ई-बसों सहित सभी सरकारी परिवहन में मुफ्त यात्रा, अंत्योदय परिवारों को 200 यूनिट मुफ्त बिजली जैसी अनेक योजनाओं की घोषणायें की है। वहां के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इसे लोगों के लिए वरदान बताया। दूसरी ओर दिल्ली की भाजपा सरकार ने 21 से 60 वर्ष की आयु सीमा में आने वाली 2.5 लाख से कम आय वाली महिलाओं को 2500 रुपये मासिक देने के प्राविधान को महिला समृध्दि योजना का नाम दिया है। यहां की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की यह घोषणा निश्चित ही प्रदेश के कर्ज में इजाफा ही करेगी। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने अपने 3.71 लाख करोड रुपये परिव्यय वाले बजट में वक्फ सम्पत्तियों के लिए 100 करोड रुपये, ईसाई समुदाय के लिए 200 करोड रुपये, हज भवन हेतु 10 करोड रुपये का प्राविधान किया। वहां के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने इस बजट में 2बी श्रेणी के अल्पसंख्यक ठेकेदारों को पात्र न होते हुए भी अन्य समुदाय के समान 2 करोड रुपये तक के सरकारी ठेके देने की घोषणा की है। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों की कालोनी के लिए 1000 करोड रुपये का अलग से प्राविधान भी किया गया है। मुस्लिम कब्रिस्तानों की सुरक्षा हेतु भी 50 करोड रुपये दिये गये हैं। यह तो केवल चन्द उदाहरण हैं। सभी राज्य सरकारें अपने नागरिकों को मुफ्तखारी की दीक्षा देने में जुटीं हैं ताकि आने वाले समय में विपक्ष को इस ग्राफ को बढाना बेहद कठिन हो जाये और वे एक मात्र संवेदनशील सरकार के स्वसम्मान से सम्मानित रह सकें। होलिका की यह चादर आपसी भाईचारे, सौहार्द और शान्ति के प्रहलाद को जलाने की कोशिश में लगी है। यह सब केवल होलिका बनी सरकारों की सोच का परिणाम ही नहीं है बल्कि इसके पीछे राजा हिरण्यकश्यप के रूप में पार्टी के आलाकमान के आदेश भी उत्तरदायी की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। देशवासियों के समक्ष एक मात्र कुशल सत्ताधारी के रूप में स्वयं को परोसने में लगी पार्टियों के मुखिया कहीं पारिवारिक विरासत के माध्यम से देश प्रमुख बनने का मुगालता पाले हैं तो कहीं सम्प्रदायगत मुद्दों को उठाकर अतीत की दुहाई दे रहे हैं। कोई आक्रान्ताओं का यशगान करके देश के संस्थागत स्वाभिमान को तार-तार करने में जुटा है तो कोई इतिहास के काले पन्नों को यथावत रखने की वकालत कर रहा है। कहीं मजबूरी में परम्पराओं को छोडने वाले अपने को आज भी गुजरे जमाने का एक वफादार गुलाम बनाकर स्थापित करने की फिराक में हैं तो कहीं परम्पराओं की दुहाई पर आक्रामकता सामने आ रही है। रंगों के त्यौहार में वैमनुष्यता की कालिख पोतने की कोशिशें हो रहीं हैं। खद्दरधारियों से लेकर खाकीधारियों तक में हीरो बनने का खुमार जोरों पर है। प्रचार संसाधनों का उपयोग करके देश-दुनिया के सामने कुशल अभिनय की परीक्षायें चल रहीं हैं। अब प्रत्येक जलसे में ऐसा ही देखने को मिलने लगा है। वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा वाले संवेदनशील देश को आक्रान्ताओं ने अपनी कटीली पौध से लहूलुहान करने का जो षडयंत्र किया था, वह आज मीरजाफरों की बागवानी में पेड बन चुका है। यह अलग बात है कि अब उसके कांटों से बागवान भी रक्तरंजित होने की स्थिति में पहुंचते जा रहे हैं। स्वार्थपूर्ति का लालच, प्रतिष्ठा का आश्वासन और मुफ्तखोरी की व्यवस्था ने देश के विकास में दीमक लगाना शुरू कर दी है। किसान की मेहनत से मनुष्य के लिए उगाये जाने वाले अनाज को कब तक कुत्तों, कीडों और जानवरों के सामने परोसा जाता रहेगा। ईमानदार टैक्सदाताओं के खून-पसीने की कमाई को राक्षस प्रवृत्ति के भस्मासुर पर वरदान के रूप में खर्च करने पर निश्चित ही एक दिन वरदानदाता भगवान शंकर को उसी से बचने के लिए शरण तलाशना पडेगी। तब शायद ही कोई भगवान विष्णु उन्हें मिलें, क्योंकि तब तक तो राक्षसों की फौज रक्तबीज बनकर विकराल रूप ले चुकी होगी। ऐसे में देश की आम आवाम को परमात्मा बनकर प्रहलाद को बचाने हेतु चादर बदलने के लिए आना ही होगा। मुफ्तखोरी, विघटनकारी और विभाजनकारी योजनाओं को अस्वीकार करके श्रम, प्रतिभा और समर्पण की शक्ति पर निर्भरता दिखाना ही होगी तभी सरकारों को अपने वास्तविक राज्यधर्म का बोध हो सकेगा। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
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