टिहरी रियासत के आगरा खाल में खोई हुई पहचान मिल रही है अरसा को

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* मान्यता है कि अरसा पकवान को आदिगुरु शंकराचार्य ने जब आठवीं सदी में प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर सहित अन्य मंदिरों की गढ़वाल में स्थापना की थीं, तब वह कर्नाटक से अरसा लाए थे।

आगरा खाल में चाय पानी में तो रुकते ही हैं, काउंटर के ऊपर अरसा की बड़ी परात सजी देखकर मैंने उनसे पूछा कि क्या यहां अरसा बिकते हैं ? उनका जवाब था 1 दिन में डेढ़ कुंटल, मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि कई दिनों बाद अरसा की बेहतरी की इस तरह की खबर आई, इस प्रकार के स्वीट शॉप कस्बे में तीन- चार होंगे। जहाँ अरसो की खूब डिमांड है।

*दरअसल महानगरों से पहाड़ और पहाड़ से महानगरों में जाने वाले प्रवासियों की तादाद बढ़ती जा रही है। उन्होंने समय के अनुसार अपने खानपान मिठाइयों में अब परिवर्तन कर लिया है। जहां कुछ साल पहले तक वह बर्फी व अन्य मिठाई खाते थे उसकी जगह अरसा ने ले ली है कारण मिठाइयों में मिलावट का जहर होना! नकली मावा होना!आगराखाल रबड़ी के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है रबड़ी से ज्यादा अब यहां अरसे बिक रहे हैं।*

*अरसा गढ़वाल की पुरानी मिठाई है।चावल को पीसकर और गुड़ डालकर इसको तेल या रिफाइंड में बनाया जाता है। जब लड्डू बर्फी नहीं होती थी तब अरसा ही अरसा थे।*
*त्योहार , वरडाली शादी विवाह में इसे एक खूबसूरत मिष्ठान के रूप में पेश किया जाता था। बेटी साल छह महीने में मायके जब आती थी, तब 1 माह बाद विदाई के वक्त ससुराल के लिए एक टिन अरसा दिया जाता था। इसे कलेऊ कहते थे, ससुराल आकर एक-एक पीस गांव में बांटा जाता था, तब बुजुर्ग लोगों और महिलाओ को पता चलता था कि, फलां की ब्वारी (बहु) मायके गई थी। लेकिन देश में जैसे ही निजीकरण का दौर आया, वैसे ही अरसा और बेटियों की विदाई के वक्त की सिसकियां धुंधली पड़ने लगी।*

*लेकिन अब अरसा के दिन आ गए हैं अरसा पहाड़ के लोगों का अपना मिष्ठान है जिसे वह स्वयं के पैदा किए हुए अनाज और गुड़ और तिलों के तेल से बनाते हैं। इसको सबसे बड़ी पुनः पहचान आगराखाल कस्बा दे रहा है, यहाँ से प्रवासी दिल्ली ,मुंबई, चंडीगढ़ , देहरादून, या अन्य महानगरों में इस अरसा पकवान को ले जाते हैं। यह 1 माह तक खराब नहीं होने वाला मिष्ठान है। मुझे जब आज एक मिष्ठान भंडार वाले ने डेढ़ कुंटल अरसा विक्रय करने की बात बताई तो सहमत नहीं था, मैंने क्रॉस चेक पास के ही एक दुकानदार से इसकी बिक्री के बारे में जाना। मैंने इंटरव्यू स्वरूप मोबाइल से कुछ सेकंड में सवाल किए ? उसकी कुंतल विक्री की बात सही निकली। दरअसल आगराखाल में कुछ मिष्ठान भंडारों में अरसा हर दिन ताजा बन रहा है, क्योंकि इसकी डिमांड अधिक है इसे अगली सुबह या दिन तक बिकना ही है यह एक तो सस्ता भी है करीब 300 रुपये किलो, और दूसरा उनका बहुत प्राचीन दादा -परदादा का खाया हुआ मिष्ठान का तमगा भी इसमें लगा हुआ है! मावे की जगह इस पर बड़ा वाला भरोसा करना बहुत अधिक विश्वसनीय पैदा करता है। इसमें गांव की जड़ों की मिट्टी की खुशबू दिखाई देती है, साथ ही ध्याण (बेटी) जो अब दादी बन गई है उसके कलेऊ की महक आज भी आती है। अरसा गढ़वाल की परंपरा है, संस्कृति, और दानों -स्यानों का घर- घर , चूल्हे- चूल्हे मिष्ठान …*

*मान्यता है कि, अरसा पकवान को आदिगुरु शंकराचार्य ने जब आठवीं सदी में प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर सहित अन्य मंदिरों की गढ़वाल में स्थापना की थीं, तब वह कर्नाटक से अरसा लाए थे। जैसे विल्सन ने राजमा के बीज ब्रिटेन से हर्षिल में लाए थे।आदिगुरु के इसे लाने के बाद यहां का यह मुख्य मिष्ठान हो गया। कर्नाटक में इसे आज भी अरसालु कहते हैं। अरसालु से ही अरसा हुआ शब्द का जन्म माना गया प्रतीत होता है।*

साभार: शीशपाल गुसाईं

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