फंदे के आकार की गर्दन ढूंढने की कवायद
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश के आन्तरिक हालातों की स्थिति निरंतर बिगडती जा रही है। अनेक उत्तरदायी लोक सेवकों ने कर्तव्यों को हाशिये पर रखकर अधिकारों का मनमाना उपयोग शुरू कर दिया है। बेंगलुरु के इंजीनियर अतुल सुभाष की आत्महत्या ने पुलिस से लेकर कानून व्यवस्था तक को कटघरे में खडा कर दिया है। न्यायाधीश पर रिश्वत की मांग के आरोप लगाते हुए अतुल ने उनके पेशकार को भी रेखांकित किया है जिनका नाम न्यायाधीश रीता कौशिक तथा पेशकार माधव बताया जाता है। पुलिस व्दारा पक्षपात करने से लेकर तानाशाही तक के अनेक पक्ष उजागर हुए हैं। महिलाओं के पक्ष में हमेशा आन्दोलन करने वाली राजनैतिक पार्टियां, समाजसेवी संगठन और कथित बुध्दिजीवियों की जमात अतुल को न्याय दिलाने के लिए पूरी ताकत से सडकों पर नहीं उतरी, नारे नहीं लगे और न ही विपक्ष ने धरना-प्रदर्शन ही किये। तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों ने मीडिया के पूछने पर औपचारिक वक्तव्य देकर अपने कर्तव्यों की इति कर ली। इस दुख:द घटना के लिये अतुल ने पहला नाम पारिवारिक न्यायालय की न्यायाधीश का लिखा था परन्तु न्यायालयों की शीर्ष व्यवस्था व्दारा विशेषाधिकार का प्रयोग करके कठोर कार्यवाही से आज तक आम आवाम को अवगत नहीं कराया। भीख मांगो, कर्जा लो या चोरी करो, चाहे जो भी करो, मेन्टीनेंस तो देना ही होगा। पुरुषों के प्रति इस तरह की टिप्पणी करने वालों की मानवता केवल और केवल महिला पक्ष के प्रति संवेदना में कैसे बदल जाती है, यह यक्ष प्रश्न स्वाधीनता के बाद से निरंतर अपनी समीक्षा के लिए उत्तरदायी लोगों को आमंत्रित करता रहा है। कानून और कानून की रोशनी में होने वाली कार्यवाही, दौनों पर एक बार फिर किसी व्यक्ति ने अपनी मौत के साथ सवालिया निशान लगाये हैं। मगर परिणाम अभी तक ढाक के तीन पत्तों से आगे नहीं बढ़ सके। अतुल को आत्महत्या के लिए प्रेरित वाले सभी नामजद लोगों के विरुध्द प्रकरण दर्ज करने में भी लम्बे समय तक कोताही बरती जाती रही। सरकारी महकमों के उत्तरदायी लोगों तक कानून का शिकंजा पहुंचना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। 34 वर्षीय इंजीनियर ने मृत्यु को गले लगाने से पहले 24 पेज लिखकर स्वयं का दर्द और देश की वर्तमान व्यवस्था पर 80 मिनिट का वीडियो संदेश भी रिकार्ड किया था। उसके अक्षरों तथा शब्दों की मनमानी व्याख्या करके पुलिस ने अपने ढंग से कार्यवाही करने की औपचारिकता प्रारम्भ कर दी ताकि मुद्दे की गर्माहट को समय की ठंड के साथ समाप्त किया जा सके। काश, अतुल को न्याय मिला होता। उसकी चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई थी कि हैदराबाद में एक फिल्म स्टार को हथकडियां पहना दी गईं। पूर्व सूचना के बाद भी पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था न होने के कारण संध्या थियेटर में पुष्पा-2 के प्रीमियर के दौरान हुई भगदड में 38 वर्षीय महिला रेवती की सांस घुटने के कारण मौत हो गई थी। पहले से अवगत होने के बाद भी सुरक्षा के उपाय न करने वाले उत्तरदायी अधिकारियों पर प्राथमिकी दर्ज करने के स्थान पर चिक्कड़पल्ली पुलिस स्टेशन में फिल्म के अभिनेता अल्लू अर्जुन सहित आयोजकों के विरुध्द बीएनएस की धारा 105 तथा 118(1) के तहत मामला पंजीबध्द कर किया और अभिनेता को उसके घर से गिरफ्तार कर स्वयं की पीठ ठोक ली। इसी प्रकरण में थियेटर के मालिक, मैनेजर और बालकनी के सुपरवाजर को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था। अनुमति लेकर थियेटर पहुंचे अल्लू अर्जुन के संबंध में मृतका के पति भास्कर ने स्पष्ट किया कि वह अपने बेटे के अनुरोध पर फिल्म देखने हेतु संध्या थियेटर गये थे, अभिनेता का भगदड या पत्नी की मौत से कोई संबंध नहीं है। यानी कि भगदड का कारण पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था का न होना था। इतना सब होने के बाद भी किसी सरकारी मुलाजिमों के खिलाफ जांच तक के आदेश नहीं दिये गये। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि फंदे के आकार की गर्दन ढूंढने की कवाइद में लगे रहने वाले अधिकांश उत्तरदायी अधिकारियों पर उनके वरिष्ठ का वरदहस्त रहता है। ईमानदाराना बात तो यह है कि न्याय की वास्तविक परिभाषा के अवतरित होते ही अनेक उत्तरदायी अधिकारियों गर्दनें स्वयं ही कानून के शिकंजे में फंसकर रहम की भीख मांगती दिखेंगीं परन्तु ऐसा होना भालू के बाल गिनने जैसा है। एक ओर तो राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेता को भगदड के लिये जिम्मेदार मान लिया जाता है वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक मंचों से 15 मिनिट के लिये पुलिस हटाने की चुनौती देकर साम्प्रदायिकता के लिए खून बहाने वालों के विरुध्द न तो पुलिस ही प्राथमिकी दर्ज करती है और न ही न्यायालय स्वयं संज्ञान लेता है। भडकीले भाषणों के लिए नेताओं को क्लीन चिट देने वालों की नजरें केवल अभिनेताओं से लेकर आमजन तक ही केन्द्रित रहतीं है। प्रतिभाबल, मानवताबल, नैतिकबल, सौहार्यबल, आत्मीयताबल, प्रेमबल जैसे सकारात्मक पहलुओं को तंत्र का उत्तरदायी वर्ग लम्बे समय से बेचारों का प्रलाप मान बैठा है। उनके लिए केवल धनबल, जनबल, तनबल, दलबल, आतंकबल, भीडबल जैसे कारक ही महात्वपूर्ण रह गये हैं तभी तो चन्द रोज पहले उत्तरप्रदेश के झांसी में मस्जिद से ऐलान एकत्रित हुई उग्रभीड ने नेशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी तथा एंटी टेररिस्ट स्क्वाड की संयुक्त टीम से एक आरोपी को आजाद करवा लिया था। दतिया गेट बाहर सलीम बाग निवासी खालिद नदवी से विदेशी फंडिंग सहित अन्य मामलों में संयुक्त टीम अपने इनपुट के आधार पर पूंछतांछ करना चाहती थी। दीनी तालीम के नाम पर आललाइन कोचिंग चलाने वाले खालिद नदवी को लेकर क्षेत्र में तरह-तरह की बातें कही जा रहीं हैं। भीडबल के आधार पर कानूनबल को झुकाने की यह पहली घटना नहीं है। स्वाधीनता के बाद से निरंतर पुलिस, प्रशासन और कानून पर पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं जिनके पीछे चन्द उत्तरदायी लोगों की कलुषित मानसिकता ही जिम्मेवार रही है। वर्तमान परिवेश में आम आवाम को सुरक्षा, न्याय और सुविधायें मिलना बेेहद कठिन होता जा रहा है। जब तक अन्याय के विरुध्द एक जुटता का शंखनाद नहीं होगा तब तक गणतंत्र की वास्तविक मंशा की व्यवहारिकता स्थापित होना लगभग असम्भव ही है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
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