परा-विज्ञान के गौरवशाली अतीत पर वर्तमान के नश्तर

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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीत रहने वाले देश ने परा विज्ञान की दम पर हमेशा ही कीर्तिमान स्थापित किये हैं परन्तु वर्तमान में आस्था को कत्ल करने वाली तलवार निरंतर पैनी होती जा रही है। भौतिक समस्याओं का जादूई समाधान पाने वालों की भीड बढती जा रही है। रोजी-रोजगार, कर्जा-उधारी, पढाई-लिखाई, धन-सम्पत्ति, शादी-विवाह, विवाद-दुश्मनी, झगडे-झांसे, कलह-मनमुटाव, अशान्ति-तनाव, रोग-बीमारी, भूत-प्रेत जैसी अनगिनत समस्याओं से समाज ग्रसित होता जा रहा है। जहां समस्यायें नहीं है तो वहां वैभव, विलासता, सम्मान और सत्ता की चाह चरम सीमा पर पहुंच रही है। चारों ओर असन्तुष्ट लोगों की भरमार है। ऐसे लोग बिना पुरुषार्थ के लक्ष्य भेदन चाहते हैं। कोई चुटकी बजाकर उनकी दैहिक, दैविक और भौतिक मनोकामनायें पूरी कर दे। उन्हें सरलतम उपाय मिल जाये। इसी लालच में लोगों की भीड कथित चमत्कारों की ओर भागी चली जा रही है। एक दुकान चल निकली तो दूसरी खुल गई। दूसरी पर भी भीड बढने लगी तो तीसरी सामने आ गई। यह अन्तहीन सिलसिला तेजी से आकार लेता जा रहा है। समाज के कथित बुध्दिजीवियों की जमातें भी ऐसी दुकानों पर पहुंच ही नहीं रहीं है बल्कि उन्हें सत्ता, सरकार और शासन का संरक्षण तक मुहैया करा रहीं है। नेताओं के समर्थक भी अपने आका की मंशा पर सक्रिय हो जाते हैं। माहौल बनाया जाने लगता है। प्रचार के आधुनिक संसाधनों का विशेषज्ञों के माध्यम से जमकर उपयोग किया जाता है। इस तरह से चर्चित हुए अनेक लोगों ने तो पीआर एजेन्सीज़ तक से अनुबन्ध करके वकायदा अपने प्लानर नियुक्त कर लिये हैं। विशेषज्ञों की सलाह पर सुर्खियों में रहने हेतु कभी विवाद पैदा किये जाते हैं तो कभी अनर्गल वक्तव्यों का सहारा लिया जाता है। कभी आलोचनाओं को हथियार बनाया जाता है तो कभी अप्रमाणित तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। कभी भावनात्मक दृश्य दिखाये जाते हैं तो कभी आवेशात्मक उद्घोष किया जाता है। पीआर एजेन्सीज़ के व्दारा तैयार किये गये खाके पर पेंसिल चलाकर अभिनय की नई तस्वीर बनाई जा रही है जिससे न केवल आम आदमी को बल्कि स्वयं को बुध्दिमान मानने वालों तक को चरणों में बैठने पर मजबूर कर दिया जाता है। आस्था ने अन्धविश्वास का जामा पहन लिया है। ऐसे में अतीत की थाथी कहीं दूर नेपथ्य में विलीन होने लगी है। सतयुग में अदृश्य और अलौकिक सत्ता सहित लोकों की स्थापना से लेकर त्रेतायुग में तीर के रूप में स्थापित अति विध्वंसकारी शस्त्रों, मन के नियंत्रण से चलने वाले असीमित स्थानयुक्त विमानों, ध्वनि तंरगों संचालित होने वाले संसाधनों तक का निर्माण किया गया था। व्दापरयुग में प्राकृतिक प्रकोप से बचाव हेतु पर्वत उठाने, साधनात्मक परिणामों से कारागार मुक्ति, चक्रव्यूह की सामरिक पध्दति के अभिनव प्रयोग, अन्याय के दौरान अदृश्य रूप से सशक्त सहायता की उपलब्धिता जैसी अनेक घटनायें मूर्त रूप लेतीं रहीं। वहीं कलयुग में रियासतकालीन इतिहास भी परा विज्ञान के प्रयोगों से भरा पडा है जिसे कहीं जादू-टोना, कहीं मारक प्रयोग, तो कहीं स्तम्भन आदि के रूप में उल्लेखित किया गया। वर्तमान के अनेक संदर्भ आज भी देश के साधकों की परा शक्ति के अव्दितीय उदाहरणों के रूप में अपनी उपस्थिति का जयघोष करते हैं। कैप्टन हरभजन सिंह की आत्मा आज भी भारत-चीन सीमा पर पहरेदारी करती है। जेलप्ला दर्रे और नाथुला दर्रे के बीच में कैप्टन हरभजन सिंह का बाबा के रूप में देवतुल्य मंदिर स्थापित है जहां बाबा की कलफदार वर्दी, चमचमाते जूते आदि नियमित रूप से आज भी रखे जाते हैं। दूसरे दिन मंदिर के कपाट खोलने पर वर्दी पर सिलवटें तथा जूतों पर कीचड के निशान मौजूद होते हैं। बाबा आज भी देश की सीमा पर अपनी उपस्थिति का प्रत्यक्ष आभास कराते हैं। विगत 30 अगस्त सन् 1946 को जिला गुजरानवाला के कूका गांव, जो अब पाकिस्तान में है, में जन्मे बाबा ने डोगरा रेजीमेन्ट में सेना के जवान के रूप में देश की सुरक्षा का संकल्प लिया था। चीन के साथ सन् 1962 हुए युध्द के दौरान वे पूर्वी सिक्कम के नाथुला दर्रे पर अपनी डियूटी कर रहे थे तभी अचानक हुए हादसे से वे ग्लेशियर में दब गये। उनका शरीर तो छूट गया मगर देश की सुरक्षा का वृत नहीं टूटा। कहा जाता है कि उनके गुम हो जाने पर खोजीदल को उनकी आत्मा स्वयं अपने मृत शरीर तक ले गई थी। तब से वे अदृश्य रहकर निरंतर अपनी डियूटी पर मुस्तैदी रहते हैं तथा दुश्मन की हरकतों, षडयंत्रों तथा घुसपैठों को संकेत के माध्यम से उत्तरदायी अधिकारियों तक आज भी पहुंचाते हैं। पूरा संसार इस अनूठे राष्ट्र भक्त सैनिक की आत्मा को उसके अद्भुद कारनामे के कारण एक अनुबुझा आश्चर्य मानकर दांतों तले अंगुलिया दबाती है। चीन के साथ हुए सन् 1962 वाले युध्द की चर्चा करें तो परा शक्ति के परम उपासक पीताम्बरा पीठ दतिया के स्वामी जी महाराज का स्मरण स्वयेव ही हो जाता है। उस युध्द में चीन की आक्रामकता और इरादों को भांप कर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हताश हो गये थे। उन्होंने देश की आवाम को युध्द के लम्बे चलने तथा दु:खद परिणामों के लिए तैयार रहने के लिए कहा था। विसम परिस्थितियों में घिर चुके देश को बचाने के लिए एकमात्र परमात्मा का सहारा ही बचा था। तब जानेमाने संत करपात्री जी महाराज ने प्रधानमंत्री को दतिया की पीताम्बरा शक्ति पीठ के स्वामी जी महाराज से मिलकर परा शक्ति का आश्रय लेने की सलाह दी थी। विचार विमर्श के उपरान्त प्रधानमंत्री को लेकर करपात्री जी महाराज दतिया पहुंचे और स्वामी जी से भेंट कराई। देश, देशवासियों और देश की सांस्कृतिक विरासत की दुहाई दी गई। अनुनय-विनय का क्रम चला। अन्तत: स्वामी जी ने परा विज्ञान के प्रयोग से देश की विपत्तियों को दूर करने का आश्वासन दिया। इस हेतु स्वामी जी ने शक्ति की तीव्रधारा मां धूमावती देवी का आह्वाहन किया। परा विज्ञान में यह बेहद जटिल और खतरनाक प्रयोग माना जाता है जिसमें साधक की करुण पुकार पर मां दौडी चली आती ंहै और लक्ष्य का भेदन तत्काल कर देती हैं परन्तु साधक को पुत्र मानने के कारण वे उसे इस दु:ख भरे संसार में फिर छोडतीं नहीं है। उसे अपने साथ ले जाती हैं। परा विज्ञान के इस अकाट्य प्रयोग का सकारात्मक परिणाम सामने आया। चीन ने एक तरफा युध्द विराम की घोषणा कर दी। पूरी दुनिया आश्चर्यचकित थी कि विस्तारवादी चीन ने एक तरफा युध्द विराम क्यों कर दिया। इस प्रश्न का उत्तर तो आज तक नहीं मिल सका परन्तु मां धूमावती के आह्वाहन के अनुशासन के तहत निर्धारित समय सीमा पर स्वामी जी को शरीर छोडना पडा। स्वामी जी की अनेक चमत्कारिक घटनायें आज भी पूरे देश में कही सुनी जातीं है। अन्य दृष्टान्त में देखें तो परा विज्ञान के परमसिध्द देवराहा बाबा के साथ जुडे अनेक अविश्वसनीय कृत्य है जो आज भी लोगों को रोमांचित कर देते हैं। कोई भी कैमरा उनकी अनुमति के बिना उनका कभी भी फोटो नहीं खींच पाया। देश के प्रधानमंत्री पद पर जब राजीव गांधी आसीत थे तब वे बाबा के दर्शन के लिए आने वाले थे। हैलीकाप्ट उतरने के लिए हैलीपैड बनाया जाने लगा। निर्धारित स्थान पर लगे बबूल के पेड काटने के निर्देश दिये गये। बाबा ने पेडों को काटने से मना किया और कहा कि यह तुम्हारे लिये पेड होंगे, हमारे तो साथी हैं। पेड नहीं कटेंगे। तब अधिकारियों ने अपनी मजबूरी बतायी। बाबा ने तत्काल कह दिया कि प्रधानमंत्री का कार्यक्रम टल जायेगा। इतना कहने के दो घंटे बाद कार्यक्रम के स्तगित होने का रेडियोग्राम आ गया। सन् 1911 में जब जार्ज पंचम भारत आये तब वे भी बाबा के आश्रम में दर्शनार्थ गये तथा एकान्त में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया था। इस तरह के कृत्यों की अन्तहीन श्रंखला देवराहा बाबा के साथ जुडी है। एक अन्य संत श्रीहरि बाबा के चमत्कारों को भी संसार ने भारत की परा विज्ञान की शक्ति के रूप में ही स्वीकार किया है। एक बार कलकत्ता से जगन्नाथपुरी जाने के लिए स्टीमर से 19 भक्तों के साथ हरि बाबा निकले। बाबा के साथ-साथ भक्तों ने कीर्तन करना शुरू दिया। स्टीमर के मुस्लिम कप्तान को यह बिलकुल पसन्द नहीं आया। उसने जबरजस्ती कीर्तन बंद करवा दिया। तभी समुद्री हवायें तेज होने लगीं। विकराल होती लहरों का पानी स्टीमर में भरने लगा। लोग गले तक पानी में डूबने लगे। कप्तान ने बाबा से पुन: कीर्तन करने की प्रार्थना की। अब स्टीमर को कोई चमत्कार ही बचा सकता था। बाबा ने परमात्मा का ध्यान करते हुए कीर्तन पुन: प्रारम्भ कर दिया। सभी सवारियों ने अपनी जाति, धर्म भूलकर बाबा के साथ उच्च स्वर में कीर्तन में अपनी भागीदारी दर्ज की। आश्चर्य घटित हुआ। हवा का वेग कम होने लगा। लहरें शान्त होने लगीं और पानी से भर चुका स्टीमर कटक तक सकुशल पहुंच गया। कप्तान ने आकर बाबा से कीर्तन बंद कराने की धृष्टता हेतु क्षमा मांगी। इस तरह के परा विज्ञान के अभिनव प्रयोगों तथा विभूतियों से हमारा प्रमाणित इतिहास भरा पडा है जिसे आक्रान्ताओं ने विकृत करके उसे हाशिये पर पहुंचाकर हमें हमारी ही विरासत से वंचित करने का प्रयास किया था। परा विज्ञान से जुडे संतों ने कभी भी स्वयं को महिमा मण्डित करने का प्रयास नहीं किया बल्कि स्वयं को छुपाकर ही रखा। आज भी देश में ऐसे अनेक सिध्द संत है जो एकान्त में सरलता के साथ अपने जीवन के निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए लोक कल्याण में लगे हुए हैं। वे प्रचार, सम्मान, भीड से बेहद दूर रहते है। वहीं दूसरी ओर स्वयं का यशगान करने और कराने वालों की देश में बाढ सी आ गई है। लोगों के मन की बात बता देने वालों की फेरिश्त में केवल बुंदेलखण्ड से ही एक दर्जन से लोग शामिल हैं जो दरवार लगाकर आगन्तुक का निजी जिन्दगी का सार्वजनिक उद्घोष कर रहे हैं। यदि परा-विज्ञान के गौरवशाली अतीत पर वर्तमान के चलने वाले नश्तरों को समय रहते रोका नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब देश का अतुलनीय अध्यात्म केवल टोने-टोटकों तक सीमित होता हुआ अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हाहाकार करने लगेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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