व्यंग्य- गरीबन मौसी
सूर्यकांत बेलवाल ‘अविरल’
हाय महंगाई, हाय गरीबी, हाय सरकार। हाय-हाय इस महंगाई ने तो जान ही निकाल दी, क्या खांऊ क्या बचाऊं, यह सुन-सुनकर तो कान बहरा ही गये हैं। जब देखो अपनी गरीबन मौसी का एक ही अलाप हाय महंगाई, हाय महंगाई। पता नहीं मौसी किस दुनिया में रहती है जो उसे नजर नहीं आता रोज दर रोज मकान तोड़ शॉपिंग मॉल बनाये जा रहे हैं, धर्मशाला, सराए तोड़ होटल लॉज और उनके आगे आलीशान शो रूम, स्टोर बनाए जा रहे हैं। जगह-जगह लगी सेल, हर सामान के दाम में भारी छूट। पैसा न हो तो भी ले जाओ, 0 परसेंट फाइनेंस सुविधा, एक रू. में ले जाओ. बस ले जाओ. इसके साथ वो फ्री, उसके साथ वो फ्री, इतना लो तो इतना एकस्ट्रा, स्कीम दर स्कीम। यानि एक नजर में हर चीज फ्री के दामों पर और फिर वहां उस फ्री की मारामारी में टांग फंसाने वाली भीड़ का देश प्रेम।
अपने शहर के नानाप्रकार के मेगामार्ट हो या अपनी राजधानी का मुख्य बाजार यहां इनकी दिन रात माल खरीदने की होड़ जैसे महंगाई, गरीबी के खिलाफ व्यापक जंग का खुला ऐलान। बात भी सही है, कोई रूके भी तो कैसे। दो हजार की साड़ी दौ सौ में, हजार का जूता सौ में लो, दौ सौ का पाजामा पचास में, (फैशन के युग में माल की गारंटी नहीं,वो अलग बात है) जितना ओढ़ो, जितना लपेटो, नकली असली क्या गांरटी, न ये क्यों पूछिएगा भला, बस आप तो जमकर भरो। देश में डेमोक्रेसी के कुछ तो फायदे हैं और फिर अपनी फितरत, पेट भले ही दो रोटी न पचा पाता हो, पर दस का जुगाड़ करना जरूरी है, सात पीढ़ी का न सोचें तो आदमी काहे के!
तमाम बेमियादी आफरों के हल्ले ने आजकर नींद हवा कर रखी है, इस चक्कर में घर जाने में भी डर लगता है। कहीं कोई डिमांड न हो जाये। पड़ोस के चमन भाई हों या फिर अपने रमन भाई, हर कोई रोज एक न एक नया आइटम घर ला रहा है। डीलरों की अति लाभकारी स्कीमों की वजह से टीवी, फ्रिज, कूलर, कार, एसी, स्कूटी, स्कूटर, बाइक आम बात है। अजी एक रुपयें में भी फायनेंस कर रहे हैं।
इधर अपनी गरीबन मौसी है जो अभी भी हरदम हाय महंगाई, हाय गरीबी का रोना पीटे है। अरे मौसी कभी सुना है कि अपने देश में कोई भूखा मरा हो, हां लावारिस हालात में कभी कोई मरा मिला तो सरकार मे बड़ी जिम्मेदारी से पुख्ता किया कि फलां लू से मरा, फलां ठंड से। इसमें अपनी सरकार की क्या गलती, आजादी के इन गौरवशाली सत्तर दशकों में भी अभी तक पहनने-ओढ़ने की तमीज नहीं आयी तो कसूर किसका है भई।
बीती गर्मी की बात है एक पिचके गालों वाला बूढ़ा हाथ में कटोरा लिए टाटबोरे को शान से ओढ़े राजधानी की गांधी रोड पर खड़ा था, आते-जाते सूती वस्त्र धरे भले लोग उसे देखकर हंस रहे थे। हंसे भी क्यों न, ऐसे सिके-तपतपाते मौसम में ये शानदार गरम कपड़ा क्यूं सजाया भला, इस मजबूत धरण को क्या अपने यहां सर्दी का मौसम नहीं है। भईयाजी अब बूढ़ा कैसे बताता कि वो सर्दियों में इसी टाटबोरे को उल्टा करके पहनता है। मजे से गुजारा हो रहा है, गर्मी भी कट रही और ठंड भी.!
कल गरीबन मौसी बताने लगी कि बगल के कूड़ा घर से एक बूढ़ी लाश मिली, कहने वालों ने कह दिया भूख से मरा होगा, इसमें क्या खास है। लो भईया इनकी सुनो ये कोई टाइम है भूख से मरने का। सरकार की तमाम स्कीमों के चलते कोई भूख, गरीबी से तड़फ कर जान दे ये तो उसके लिए डूब मरने जैसी बात होगी।
इज्जत बच गयी जी, जांच में पता चला कि ज्यादा खाने से जान गयी, सीधे फूड प्वाइजनिंग का केस था। अब इस अभागे बूढ़े को कौन समझाता कि तमाम राशन की दुकानों, उनकी स्कीमों और सरकारी अनाज भंडारों के रहते-सड़ते क्या जरूरत थी कूड़ा घर से बासी, सड़े टुकड़े बीन कर खाने की और ऊपर से वो भी भरपेट कि आंते फूल जायें!
बस मौसी ऐसे ही गरीब लोगों ने इस खुशहाल व्यवस्था का मजाक उड़ा रखा है, वरना सब ठीक-ठाक है। भला हो देश के आला सरकारी नौकरदारों का जिन्होंने गीता पर हाथ रख खुशी-खुशी इसका दामन थामा और चहुंमुखी विकास की कसम खायी। इसी के चलते आज इन इज्जतदारों के चौमंजिले, चमाचम कारें सभी तो देश में भरपूर खुशहाली का राप अलापते हैं और एक ये अपनी मौसी..।
इनके भवनों के हालनुमा कमरों में सम्पन्नता हर कोने में पसरी दिखायी देगी। कमरों में चालू एसी आपको अहसास ही नहीं होने देगा कि आपके यहां हाथ से झलने वाला पंखा या इलेक्ट्रिक फैन भी ठीक स्थिति में नहीं है। बैठक का बेशकीमती विदेशी फर्नीचर भुला देगा कि मेहमानों के घर आने पर आपको पड़ोसियों के यहां से उनके सहूलियत का जुगाड़ करना पड़ता है। बढ़िया विदेशी वाइन से सजा शोकेस आपको याद ही नहीं आने देगा कि बच्चे और बूढ़ी मॉ की खांसी पर आपके पास सीरप की बोतल के लिए पैसे पूरे नहीं होते थे, वहीं रसूखवालों के रसोईघर से आती मुर्गमुस्सलम् की खूश्बू आपको इस कदर दिवाना बना देगी की आप भूल ही जाएंगे कि टमाटर, प्याज व घी का तड़का लगी दाल खाये अरसे बीत गये। ऐसे में इस मौसी का रोता बेसुरा अलाप सुना जाये या देश के इन कर्णधारों की देश के प्रति वफादारी की दुहाई दी जाए।
मौसी भी खूब है चैन नहीं लेने देती, अल सुबह 4 रुपये की चिल्लर थमाकर कहने लगी बेटा नमक ला दे, मैंने चौंककर कहा अरे मौसी इतने में अब नमक नहीं आता, कहने लगी अच्छा फिर घी ही ला दे। अब मौसी के साथ कौन खाली खोपड़ी घिसे कि 50 पैसे वाली चीज अगर 20 में मिल रही है तो इसमें गुर्राने वाली क्या बात है। ये तो देश के स्टेट्स सिम्बल की बात है और गर्व होना चाहिए उन पर जो आज भी नमक के साथ रोटी खाने की हिम्मत रखे हैं। अब इतना सब तो न ये अपनी गरीबन मौसी समझेगी, न ही इसे कोई समझा सकेगा। वो बेचारी तो हमेशा हाय गरीबी-हाय महंगाई का राग अलापते रहेगी और एक दिन हाथ में 4 रुपये की चिल्लर व एक हाथ में सूखी रोटी लिए किसी चौराहे पर यह सोचकर दम तोड़ देगी कि शायद देश में गरीब का मिटना ही अविरल गरीबी-महंगाई का अंत हो..।