खालिस्तान जैसी चिंगारी से राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
आस्था के नाम पर उन्माद फैलाने का षडयंत्र निरंतर बढता ही जा रहा है। पंजाब में खालिस्तान के झंडे तले कट्टरपंथियों की जमात तैयार करने की कोशिशें एक बार फिर तेज हो चुकीं हैं। वहां के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले खालिस्तान के विदेशों में बैठे आकाओं के इशारों पर पंजाब सहित हिमाचल को निशाने पर लिया गया था। हिमाचल की तत्कालीन सरकार ने पंजाब से आने वाले खलिस्तान समर्थकों पर जब लगाम लगाने की कोशिश की, तो प्रतिक्रिया स्वरूप पंजाब की तत्कालीन सरकार ने जबाबी हमला बोलकर सिख कट्टरपंथियों के दुस्साहस को समर्थन दिया था। पंजाब की वर्तमान सरकार के अस्तित्व में आते ही खालिस्तान की मांग ने एक बार फिर आतंक के रास्ते से दस्तक देना शुरू कर दी। विदेशी षडयंत्रकारियों ने भारत की विश्व में बन रही प्रभावशाली छवि को धूमिल करके के उद्देश्य से इस्लाम के अलावा सिख कट्टरपंथियों को भी सक्रिय कर दिया ताकि देश का तंत्र आंतरिक कलह में उलझकर रह जाये। इसी क्रम में वारिस पंजाब दे नामक संगठन और अमृतपाल सिंह को अशान्ति फैलाने हेतु सूत्रधार की भूमिका में स्थापित कर दिया गया। अमृतसर के अजनाला थाने पर अवैध असलहों के साथ आतंकवादियों का हमला इसी षडयंत्र की रहसल थी, जो पंजाब की वर्तमान सरकार ने किन्हीं कारणों से सफल हो जाने दी। अमृतपाल का सहयोगी सलाखों से बाहर आ गया। वारिस पंजाब दे नामक संगठन से जुडे लोगों के हौसले बुलंद होते चले गये। पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी का हवाला देते हुए देश के वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह को खुले आम धमकियां दी गईं। लम्बे समय तक जब पंजाब की वर्तमान सरकार ने इस मुद्दे पर कोई भी प्रत्यक्ष और प्रभावी कदम नहीं उठाया तो फिर राजनैतिक दबाब बढाया जाने लगा, आम आवाम के स्वर मुखरित होने लगे, सोसल मीडिया में पंजाब की वर्तमान सरकार को खालिस्तान समर्थित सरकार कहा जाने लगा। केन्द्र ने सीधा दखल देने का मन बनाया। ऐसे में निकट भविष्य में आने वाले अनेक राज्यों के चुनावों के मद्देनजर पंजाब की सरकार को मजबूरन अमृतपाल पर शिकंजा कसने पडा। शाहकोट के पास अमृतपाल के काफिले को सुरक्षा बलों ने घेर लिया। दो गाडियों में सवार 6 लोगों को पकड लिया गया परन्तु मर्सिडीज में बैठकर अमृतपाल भाग जाने में सफल हो गया। बाद में उसे भी जालंधर शहर के नकोदर के पास गिरफ्तार कर लिया गया। उसके गांव जल्लुपुर खेडा को सील कर दिया गया। इंटरनेट सेवायें बाधित करते हुए अनेक स्थानों पर धारा 144 लगा दी गई। इस हालिया घटनाक्रम को पर्द के पीछेे से सहयोग कर रही राजनैतिक विरादरी के संबंध में भी गहराई से समझना होगा, अतीत की इबारतों में सत्य तलाशने होंगे और करना होगा परिस्थितियों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण। दहशत से बादशाहत तक पहुंचने का लम्बा इतिहास रहा है। बाह्य आक्रान्ताओं ने क्रूरता, कट्टरता और कठोरता के हथियारों से देश को गुलाम बनाया था। कथित धर्म की आड में अपनी जीवन पध्दति गुलामों पर थोपने की कोशिश की थी। विस्तारवादी नीति का अनुपालन किया था। तब रियासतों के अन्दर रहने वाले अनेक भितरघातियों ने भौतिक संसाधनों, थोथे सम्मानों और पीढियों के सुरक्षित भविष्य की आशा में अपनी धरती के साथ गद्दारी की थी। मुट्ठी भर आक्रान्ताओं ने स्थानीय गद्दारों के सहयोग से शक्तिशाली रियासतों पर आसानी से कब्जे कर लिये थे। बाद में गोरों ने व्यापारियों के छद्मभेष में आमद दर्ज की और कूटनैतिक चालों के सहारे सत्ता हथियाली। भाई को भाई से लडवाया और स्वयं चौधरी बन गये। इतिहास की दुहाई पर वर्तमान के षडयंत्र बनाये जा रहे हैं। कथित धर्म की आड में सत्ता सुख की रोटियां सैंकने की इच्छायें पूरी की जा रहीं हैं। मुस्लिम आक्रान्ताओं के जुल्म तले रौंदे जाने वाले सिख गुरुओं के आदर्शों को नजरंदाज करते हुए खालिस्तान समर्थक आज उन्हीं की गोद में बैठकर अपनों का ही खून बहाने पर तुले हैं। दंगों की पटकथा लिखने वाले कट्टरपंथियों की मंशा किसी से छुपी नहीं है। देश को टुकडों में बांटने वालों के समर्थन में खद्दरधारियों की एक बडी जमात खडी हो जाती है। कश्मीर में घुटपैठ करके उत्पात मचाने वाले आतंकियों को मासूम करार देने वाले राजनेताओं के खास सिपाहसालार, न्यायालयों तक में उनके राष्ट्रदोह को अनजाने में की गई घटना सिध्द करने में जुट जाते हैं। आतंकियों के जुल्मों पर होने वाली सजा को टालने के लिए गहराती रात में भी न्यायालय को खोलने के लिए मजबूर किया जाता है। यह सब खालिस्तान स्थापित करने या गजवा-ए-हिन्द लागू करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि हिन्दू राष्ट्र का नया मुद्दा भी तेजी से उठ खडा हुआ है। इस मंच पर भी अनेक राजनैतिक नेताओं ने धडल्ले से भागीदारी दर्ज करना शुरू कर दी है। हिन्दू राष्ट्र का नारा बुलंद करने वाले श्री बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर ने हाल ही में एक विशाल कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें लाखों श्रध्दालुओं की भीड उपस्थित रही। इस आयोजन के मंच पर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ सहित वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह तक ने भागीदारी दर्ज की थी। इससे यह तो स्थापित हो गया कि आयोजन के पहले दिन पहुंचे कमलनाथ ने अपनी पार्टी का जनाधार बढाने के लिए हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वाले मंच का खुलकर उपयोग किया। उन्होंने अपनी उपस्थिति के साथ पीठाधीश्वर के सिध्दान्तों को स्वीकार किया, आदर्शो को आत्मसात किया और दिया उनके कृत्यों को समर्थिन। तभी तो वे हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वाले मंच पर आसीत हुए थे। आयोजन के अंतिम दिन वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी अपने उद्बोधन को संस्कृत के श्लोक से प्रारम्भ करके हिन्दू राष्ट्र की मांग का अप्रत्यक्ष समर्थन प्रदर्शित किया। दौनों ही खद्दरधारियों ने विपरीत सिध्दान्तों वाली पार्टियों का अंग बनकर हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को अप्रत्यक्ष रूप में समर्थिन दिया था। विदेशों के अलावा देश को कोने-कोने में श्री बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री की कथायें तथा दिव्य दरवार के आयोजन हो रहे हैं। इन मंचों से हिन्दू राष्ट्र की मांग को जोरदार ढंग से उठाया जाता है। ऐसे में विभिन्न राजनैतिक दलों के कद्दावर नेताओं, समाजसेवियों, प्रखर प्रतिभाओं की हिन्दू राष्ट्र की मांग उठाने वाले मंच पर भागीदारी निश्चय ही उनकी मौन सहमति का प्रतीक है। यह अलग बात है कि पीठाधीश्वर अपने उद्बोधन में हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ जोडकर अपनी मांग को परिभाषित करते हैं परन्तु आम आवाम तो हिन्दू राष्ट्र की मांग को भी शिरियत से चलने वाले मुस्लिम राष्ट्रों, मिशनरियों के इशारों पर चलने वाले पश्चिमी राष्ट्रों की तरह ही कट्टरपंथी मानती है। वास्तविकता तो यह है कि हिन्दू राष्ट्र का बोध किसी ऐसे धर्म से नहीं लिया जाना चाहिए जो किसी विशेष जीवन पध्दति की बाध्यता को स्थापित करता हो। सिन्धु नदी के व्यापक क्षेत्र को ही कालान्तर में हिन्दू धरा के रूप में मान्यता दी जाने लगी। सभ्यता की बात करें तो सनातन संस्कृति ही धरती की पहली सभ्य परम्परा है जो सामूहिकता, सहयोग और सहानुभूति की त्रिशक्ति पर निर्भर थी। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप मानवीय काया ने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार विकसित किये। इसी का विस्तार उस क्षेत्र विशेष के निवासियों के लिए आचरण की अनिवार्यता के रूप में सामने आता चला गया और स्वयं वरण करने वाली स्थिति बाद में अनिवार्यता के रूप में स्थिापित हो गई। वास्तव में धर्म तो धारण करने वाली कल्याणकारी अनुभूति है जिसे बांटा, थोपा या लागू नहीं किया जा सकता। परिस्थितियों के अनुरूप अपनाई गई जीवन शैली को धर्म कहना, सत्य को कटघरे में खडा करने जैसा है। ऐसे में खालिस्तान जैसी चिंगारी से राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश को मूर्खतापूर्ण प्रयासों से अधिक महात्व नहीं दिया जाना चाहिए। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।